ग़ज़ल – दुनिया के इस रंगमंच पर
दुनिया के इस रंगमंच पर बस किरदार बदलते हैं।।
अल्फ़ाज़ साज़ नाटक वो ही तारीख-वार बदलते हैं।।
कब पाँव की जंज़ीरें टूटी कब खुल के पंख पसारें हैं।
हो ये पिंजरा या वो पिंजरा बस दावेदार बदलते हैं।।
सँवरे से इन चेहरों का सच ऐसा भी हो सकता है।
रोते बीती रातें सुबह कजरे की धार बदलते हैं।।
उस मालिक ने न जाने कैसी मिट्टी से गढ़ डाला।
एक एक करके, सब बदले हम ही न यार बदलते हैं।।
कैसी ये फितरत उनकी अब इसके तो कल उस दर के।
फेरी वाले रोज़ाना ही जैसे बाजार बदलते हैं।।
जन्मों के बंधन के दावे तब झूठे साबित होते हैं।
कुछ एक कदम चलते ही जब कंधे चार बदलते हैं।।
दुनियावी ही एहसास फ़क़त लफ़्ज़ों में ढाले जाते हैं।
हर ग़ज़ल लिए है टीस वही बस अशआर बदलते हैं।।
एक हमज़ुबाँ हमने भी ‘लहर’ शिद्दत से चाहा था।
नही कोई कहीं माफिक अपने हम मेयार बदलते हैं।।