कविता

दुखिया

” दुखिया ”

आज फिर मेरी आंखें हुईं नम
देखकर पराई पीर,एक परिवार का ग़म,
ज़माने का सितम सह न सका’दुखिया’
लगाकर फांसी , तोड़ा उसने दम ।

जीवन कट गया हल चलाते चलाते
उठा न सका अपने परिवार का बोझ,
तन में कपड़े नहीं,पेट में रोटी नहीं
इस बात पर लड़ाई होती थी रोज ।

बेटा पढ़ने न जा पाया कभी
बेटी की सगाई गई थी टूट ,
दहेज लोभी था दुल्हे का परिवार
किया हुआ वादा निकला झूठ ।

बिना दहेज शादी न होगी
दुल्हे का पिता गया अकड़ ,
लाख मिन्नतें की दुखिया ने
सबके पांव लिए थे पकड़ ।

तपाया तन को सर्दी,बारिश,धूप में
किस्मत गई थी उससे जैसे रूठ ,
साहूकार का ऋण चुकाते चुकाते
उसकी कमर ही गई थी टूट ।

जाने ऐसे कितने किसान है, जो
ऋण का बोझ ढो नहीं पाता,
साहूकार के हाथों लूट जाता सब
अपने लिए शेष नहीं कुछ रहता ।

तंगहाली से होकर परेशान वे
कर तो देते हैं जीवन का अंत,
पीछे परिवार रह जाता अकेला
लेकर दुखों का समुद्र अनंत ।

हम प्रगति की बातें करते करते
थक,हार कर हो जाते हैं चुप ,
गांव गांव जाकर देखा मैंने
ग़रीबी का वह भयावह रूप ।

मैं भी हूं एक किसान की बेटी
सामर्थ्य है समझने की उनकी व्यथा
आंखों देखा हाल बताया मैंने
नहीं है यह कोई कल्पित कथा ।

गरीब न हो कोई इस जग में
गरीब होना है बहुत बड़ा पाप ,
कोई भी सज़ा दे दो मानव को
प्रभु! ग़रीबी का न देना कभी श्राप ।

पूर्णतः मौलिक रचना- ज्योत्स्ना की कलम से ।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]