दुखिया
” दुखिया ”
आज फिर मेरी आंखें हुईं नम
देखकर पराई पीर,एक परिवार का ग़म,
ज़माने का सितम सह न सका’दुखिया’
लगाकर फांसी , तोड़ा उसने दम ।
जीवन कट गया हल चलाते चलाते
उठा न सका अपने परिवार का बोझ,
तन में कपड़े नहीं,पेट में रोटी नहीं
इस बात पर लड़ाई होती थी रोज ।
बेटा पढ़ने न जा पाया कभी
बेटी की सगाई गई थी टूट ,
दहेज लोभी था दुल्हे का परिवार
किया हुआ वादा निकला झूठ ।
बिना दहेज शादी न होगी
दुल्हे का पिता गया अकड़ ,
लाख मिन्नतें की दुखिया ने
सबके पांव लिए थे पकड़ ।
तपाया तन को सर्दी,बारिश,धूप में
किस्मत गई थी उससे जैसे रूठ ,
साहूकार का ऋण चुकाते चुकाते
उसकी कमर ही गई थी टूट ।
जाने ऐसे कितने किसान है, जो
ऋण का बोझ ढो नहीं पाता,
साहूकार के हाथों लूट जाता सब
अपने लिए शेष नहीं कुछ रहता ।
तंगहाली से होकर परेशान वे
कर तो देते हैं जीवन का अंत,
पीछे परिवार रह जाता अकेला
लेकर दुखों का समुद्र अनंत ।
हम प्रगति की बातें करते करते
थक,हार कर हो जाते हैं चुप ,
गांव गांव जाकर देखा मैंने
ग़रीबी का वह भयावह रूप ।
मैं भी हूं एक किसान की बेटी
सामर्थ्य है समझने की उनकी व्यथा
आंखों देखा हाल बताया मैंने
नहीं है यह कोई कल्पित कथा ।
गरीब न हो कोई इस जग में
गरीब होना है बहुत बड़ा पाप ,
कोई भी सज़ा दे दो मानव को
प्रभु! ग़रीबी का न देना कभी श्राप ।
पूर्णतः मौलिक रचना- ज्योत्स्ना की कलम से ।