पार कर दूं मैं
कल्पना को किस तरह साकार कर दूं मैं।
किस तरह तीरे नज़र के पार कर दूं मैं।
किस तरह तीरे नज़र के पार कर दूं मैं।
मर रहा हर साल रावण ,राम लीला में।
किस तरह रावण का बंटाधार कर दूं मैं।
जिंदगी मजलूम लोगों की है फूलों सी।
किस तरह अरमान को बेजार कर दूं मैं।
कल्पना करके ज़रा देखो मेरे यारों।
दिल को यूं ही दिल के कैसे पार कर दूं मैं।
जिंदगानी इम्तहां सी लग रही यारों।
किस तरह इस इम्तहां को पार कर दूं मैं।
ऊब आया हूँ ज़माने की बंदिशों से।
तोड़कर निकलूँ कि सीधा पार कर दूं मैं।
मैं भटकता भीख के खातिर सड़क पर हूँ।
कार में कुत्तों से आँखें चार कर दूं मैं।
कल्पना से हर हकीकत फिर नहीं बदली।
रूबरू होकर ही पर्दा तार कर दूं मैं।
— लाल चन्द्र यादव