जीवन और कर्तव्य : मर्यादा
कहाँ गए वो आम बगीचे, वो बरगद की ऊँची शान |
कहाँ गए मर्यादित नर-नारी, कहाँ गई मानुष पहचान ||
आडम्बर की होड़ लगी है, सिर्फ दिखावा शान हुई |
मन -चित को हर लेनेवाली, वो मर्यादा कहाँ गई ||
जीवंत थी जो प्रकृति हमारी, जीवंत वो मुर्गे की बान |
अठखेली अलबेली गोपियाँ, और अपने कुएँ की शान ||
मस्त जोड़ियां बैलों वाली, गायों का वो झुण्ड अनेक |
मर्यादित जीवन के वो दिन, जिसमें होता काम वो नेक ||
प्रकृति और जीवन की रचना, प्रभु का था एक वरदान |
जब से कलयुग आन पड़ा है, लुप्त हुआ ऋषियों का ज्ञान ||
हमें प्रकृति से जुड़ना होगा, मत बैठो बनकर अनजान |
विश्व पटल पर नित दिन होते, देखो विनाश, ले लो ज्ञान ||
— हृदय जौनपुरी