ग़ज़ल
इस देश का चुनाव है’ अपने शबाब में
अब कौन शख्स है खरा’ इस इन्तखाब में ?
जनता के’ सामने सभी’ माहिर जवाब में
आदाब को भी’ छोड़ते’ नेता इताब में |
आरोप अब लगा रहे’ हैं एक दूजे’ पर
नखरे अभी सभी दलों’ के शोख ताब में |
शासक अभी फरीद है’, इसको हराना’ है
अब एकता विपक्ष में’ अपने हिसाब में |
कोई नहीं यहाँ जो’ धुले दूध के अभी
अपनी सभी बुराई’ छुपायी हिजाब में |
बादल सलील हीन, न सौरभ है’ फूल में
यह वायु नम, नहीं नशा’ है अब शराब में |
यह चाह थी हयात में’ बाहों में’ तुझको’ लूँ
ये जिंदगी तमाम बिताया सराब में |
इस बेकरार दिल की’ तमन्ना कि देख लूँ
जो पूर्णिमा का’ चाँद छुपा है नकाब में |
दिनरात इंतज़ार किया, फिर मिलन हुआ
पर लम्स में वो’ मज़ा कहाँ’, जो इजतिराब में |
प्रतिवर्ष ही हरेक पुरस्कार पाते’ हैं
है नाम, किन्तु शाख कहाँ है खिताब में ?
‘काली’ गुफाओं’ में नही’ मंदिर में’ भी नहीं
भगवान, ज्ञानज्योति सभी कुछ किताब में |
शब्दार्थ : इन्तखाब=चुनाव; इताब=गुस्सा
हिजाब=आढ़ : सलील= हरकत, क्रियाकलाप
ताब=गर्मी; फरीद=अकेला; सराब= मृगमरीचिका
लम्स= छूअन,स्पर्श: इजतिराब=बचैनी से समय काटना
कालीपद प्रसाद