ग़ज़ल
कर्म करना यहाँ’ निष्ठा से, धरम ही जाना
भाग्य, प्रारब्ध, सभी को अब भरम ही जाना |
मृत्यु के बाद कहाँ जाता, न जाने मानव
आदमी रूप में’ विचरण को जनम ही जाना |
कर्म फल भोगना’ पढता है इसी जीवन में
भोगना जो पडा’ उसको मैं करम ही जाना |
प्रेम नायक था’ कन्हाई, मंजु वृन्दावन में
मोह तोड़ा, गया’ मथुरा, बेरहम ही जाना |
इस धरा पर कहीं’ कोई स्वर्ग है, तो सुनलो
दिव्य कश्मीर को’ हमने तो इरम ही जाना |
वादियों में बनी’ रानी मैं, हटाया क्यों हाथ ?
छोड़ जाना ते’रा’ बलमा, मैं सितम ही जाना |
छोड़ घर राज सभा में बैठ हम सोचे क्या ?
हर सु नारी है’ यहाँ ‘काली’, हरम ही जाना |
कालीपद ‘प्रसाद’