क्या व्यवहार में हम ईश्वर को अपने सभी कर्मों का साक्षी मानते व बुरे कर्मों से डरते हैं?
ओ३म्
हम यह लेख लिख रहे हैं इसलिये कि हमारे मन में यह विचार आया है। हमने अपने जीवन में इस विषय का लेख नहीं पढ़ा हां वैदिक साहित्य में इससे सम्बन्धित प्रचुर सामग्री अवश्य मिलती है। आर्यसमाज व हम ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के नित्यत्व व अनादित्व के सिद्धान्त को मानते हैं। वेदों की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, नित्य, अविनाशी व अमर है। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से हमारे भीतर व बाहर विद्यमान है। वह हमारे प्रत्येक कर्म को जानता व देखता है। हम शुभ व अशुभ जो भी, जैसा भी व जब भी कोई कर्म करते हैं तो यह ईश्वर को विदित हो जाता है। इसी कारण ईश्वर को सभी जीवों के सभी कर्मों का साक्षी कहा जाता है। न्याय करने में न्यायाधीश को अपराधी व निर्दोष व्यक्ति के आचरण, व्यवहार व उस कर्म का यथार्थ ज्ञान होना चाहिये जिसके लिये उसे सजा या पुरस्कार दिया जाना होता है। ईश्वर यह काम एक सर्वोत्तम न्यायाधीश के अनुरूप करता है। न उसके न्याय से कोई अपराधी और न कोई पुण्य व शुभ कर्मों का कर्ता छूट पाता है। जिसने अच्छे कर्म किये होते हैं उसे उसके कर्मों के अनुरूप पुरस्कार व सुख मिलता है और जिसने अशुभ कर्म या पाप कर्म किये होते हैं उसे उसके उन कर्मों के अनुरूप न कम और न अधिक दण्ड अवश्य मिलता है। हस सिद्धान्त को सभी वेद व विवेकशील सनातन वैदिक धर्मी मानते हैं। यदि ईश्वर सभी जीवों के भीतर न होता तो वह उनके कर्मों का साक्षी न होता और तब वह मनुष्यों व अन्य प्राणियों के प्रति न्याय नहीं कर सकता था।
हम आर्यसमाज के अनुयायी व विद्वान सब ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वान्तर्यामी तथा सब जीवों के कर्मों का साक्षी मानते हैं परन्तु क्या हम ईश्वर के साक्षी होने के कारण सभी अशुभ कर्मों का त्याग कर पाते हैं। हम अनुमान से कह रहे हैं कि समाज में ऐसे विद्वानों व वैदिक धर्मावलम्बियों की संख्या अति न्यून होगी जहां ईश्वर के सर्वव्यापक स्वरूप के कारण बुरे व अशुभ अथवा पाप कर्मो ंसे पूरी तरह डरते हैं और कोई भी अशुभ काम नहीं करते। हम यह स्वीकार करते हैं कि कुछ धर्मात्मा लोग ईश्वर को साक्षी मानकर बुरे कर्मों से दूर रहते हैं परन्तु यह सिद्धान्त सभी वेदानुयायियों पर पूर्णतः लागू नहीं होता। हम यह स्वीकार करते हैं कि आर्यसमाज में वैदिक मतावलम्बी ईश्वर से डरते हैं और अशुभ व पाप कर्म दूसरों से बहुत कम करते हैं। इसका कारण यह है कि हमें भी अन्य लोगों की तरह से सुख व सुविधायें प्रभावित करती हैं जिसके कारण हम उनकी पूर्ति में ज्ञान व अज्ञान दोनों कारणों से कुछ ऐसे कर्म कर डालते हैं जो हमें सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं करने चाहियें। इसका परिणाम यह होता है कि हमारी कुछ त्याज्य कर्मों में प्रवृत्ति हो जाती है और इसके कारण हम भविष्य में भी उन त्याज्य कर्मों से बच नहीं पाते। ईश्वर की प्राप्ति व उसे प्रसन्न करने के लिये हमें शुभ व सत्याचरण करना अनिवार्य है। हम इसका प्रयास भी करते हैं परन्तु यदा-कदा हम भी कुछ ऐसा आचरण व व्यवहार कर बैठते हैं जो हमें नहीं करना चाहिये। इसका एक कारण यह भी होता है कि मनुष्य का जीवात्मा अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ मनुष्य कई बार अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़कर असत्य में झुक जाता है। यह विचार महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखे हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हमारे वर्तमान व भावी जीवन में उन असत्य व अकर्तव्य को करने से हमें दुःख आदि कष्ट भोगने पड़ते हैं।
वैदिक मान्यता है कि मनुष्य को जो दुःख मिलता है वह उसके अशुभ कर्मों का ही परिणाम होता है। महर्षि दयानन्द भी कहते हैं कि शुभ व पुण्य कर्मों का परिणाम सुख व अशुभ व पाप कर्मों का परिणाम इस जन्म व परजन्म में दुःख के रूप में भोगना पड़ता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य को आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक दुःख भी मिलते हैं। शायद ही कोई महापुरुष हुआ हो जिसे दुःख न भोगना पड़ा हो। हमने अनेक सच्चे विद्वानों को भी देखा है कि उनको अनेक प्रकार के रोग हुए, किसी की विधर्मियों ने अज्ञानता, मूर्खता व स्वार्थवश हत्या कर दी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी को तो लोहारू रियासत में सिर पर कुल्हाड़े से प्रहार किया गया था। इस पर भी वह अपने आत्मबल व आत्म-विश्वास आदि गुणों के कारण उस पीड़ित अवस्था में भी स्वयं अस्पताल पहुंचे और उपचार करवाकर स्वस्थ हुए। हमारे एक मित्र रूग्ण चल रहे थे और उनका स्वास्थ्य निरन्तर चिन्ताजनक होता जाता था। हम उनके साथ हरिद्वार के एक डाक्टर से मिले तो उन्होंने डाक्टर महोदय को कहा कि मैंने इस जन्म में कभी कोई बुरा काम किया हो, मुझे याद नहीं और अपने पूर्वजन्म के कर्मों का मुझे पता नहीं है। हमारे यह मित्र ऋषि भक्त थे और बहुत ही स्वस्थ व सुन्दर थे। जब यह मुज्जफरनगर से देहरादून आये थे तो इनकी सुन्दरता का यह हाल था कि जब यह देहरादून के मुख्य बाजार से निकलते थे तो वहां के दुकानदार बाहर आकर इन्हें देखकर कहा करते थे, कि कितना सुन्दर युवक है। लगभग 58-59 वर्ष की आयु में इस मित्र का देहान्त हुआ था। इन सब कारणों पर विचार करने पर यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हमारे सभी दुःख हमारे पूर्व किये हुए पाप कर्मों का परिणाम नहीं होते अपितु इनमें कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन पर हमारा वश नहीं होता और ऐसे दुःखों को हम आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दुःखों में परिगणित किया करते हैं।
हम संसार पर दृष्टि डालते हैं तो इससे निर्णय होता है कि यह सृष्टि ईश्वर की रचना है। यदि ईश्वर न होता तो यह रचना कदापि सम्भव नहीं थी। संसार में व्यवस्था एवं प्राणियों के जन्म व मरण को देखकर भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य सिद्ध होता है जिसका आधार, निमित्तकारण व कर्त्ता ईश्वर ही सिद्ध होता है। यदि ईश्वर न होता तो यह सब कार्य क्योंकर हो पाते? इन सब कारणों से ईश्वर का सर्वव्यापक तथा सर्वान्तर्यामी होना भी ज्ञात होता है और ईश्वर के इन दो गुण व अवस्थाओं के कारण वह सभी जीवात्माओं व मनुष्य आदि प्राणियों के सभी कर्मों का साक्षी और न्यायाधीश सिद्ध होता है। यह जानने के बाद भी हमसे जाने व अनजाने में अशुभ व पाप कर्म हो ही जाते हैं। हमें हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिये कि हम कोई पाप या अशुभ कर्म कदापि न करें। महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम और पं. गुरुदत्त विद्यार्थी आदि हमारे आदर्श हैं। सत्याचारण में ही जीवन लगा देने वाले इन महापुरुषों के कारण ही इनका यश आज भी देश व विश्व में विद्यमान हैं। इनका जीवन चरित पढ़ कर हमें ऊर्जा मिलती है और सत्याचरण में हमारा संकल्प दृण होता है। निष्कर्ष में हमें यह कहना उचित प्रतीत होता है कि सभी मनुष्यों को ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, उपासना तथा वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिये। यह सभी का परम धर्म व कर्तव्य है। इसके साथ ही हमें यज्ञादि अग्निहोत्र सहित सभी वैदिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। जो मनुष्य परीक्षा में पास होता है उसकी उन्नति होती है और जो फेल होता है वह उसी कक्षा में रहता है या उसे उसके अनुरुप नीची कक्षाओं में भी डाला जा सकता है। ईश्वर भी ऐसा ही करता हुआ हमें प्रतीत होता है। ईश्वर सब मनुष्यों व प्राणियों के सभी कर्मों का हर क्षण व हर पल का साक्षी है। उसकी दृष्टि से हमारा कोई भी कर्म बिना भोगे बचता नहीं है। यदि हम अशुभ वा पाप कर्म करेंगे तो हमें उनका फल दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ेगा। अतः हमें इस विषय का स्वाध्याय एवं चिन्तन करके स्वयं निर्णय करना चाहिये और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य