त्याग
निरंजन की मां जैसे ही अपने कमरे में आई, उसे लगा उसके पति की तस्वीर मानो मुस्कुरा रही है. ऐसा हो भी क्यों न! वह खुद भी तो निरंजन के आने के बाद से बहुत खुश थी!
उसने निरंजन को अपने पति के साथ-साथ सभी पूर्वजों का तर्पण करने ‘गया’ भेजा था. वहां पंडितजी ने जैसे-जैसे कहा, निरंजन करता ही गया था. आखिर में पंडितजी ने कहा, ”बेटा, तुम्हें किसी चीज का त्याग करना होगा.”
”त्याग! क्या मतलब पंडितजी?”
”हां बेटा, जैसे दक्षिणा के बिना ब्रह्मभोज सम्पन्न नहीं होता, वैसे ही त्याग के बिना तर्पण सम्पूर्ण नहीं माना जाता.”
”बाकी लोग क्या-क्या छोड़ते हैं, जरा मेरा पथ-प्रदर्शन करें.”
”लोगों की मत पूछो. कोई मूली के पत्ते छोड़ता है, कोई केले के छिलके. तुम्हारा क्या विचार है?”
”पंडितजी, मेरे पिताजी मेरी धूम्रपान की आदत से बहुत परेशान थे. वे रोज मुझे धूम्रपान छोड़ने के लिए कहते थे, पर उसके नुकसान जानते हुए भी मेरी कल-कल की आदत ने उनके जीते जी मुझे ऐसा करने नहीं दिया. सो मैं धूम्रपान का ही त्याग कर देता हूं.”
”शाबाश बेटा, आज तो तुम्हारे पिता और सभी पूर्वज तुम्हारे इस अप्रतिम त्याग से बहुत खुश हुए होंगे. ऐसा सच्चा त्याग-तर्पण आज तक मेरे पास किसी ने नहीं किया. भगवान तुम्हें इस व्रत को सफल करने का साहस दे.”
मां भी बहुत खुश थी. उसे अपने बेटे पर गर्व हो रहा था.
विधान के मुताबिक कोई प्रिय वस्तु का उपयोग छोड़ना होता है लेकिन इंसान किसी को भी ठगने से बाज नहीं आता , पितृ देवों और देवों को भी नहीं । छोड़ने के नाम पर किसी ऐसी चीज का त्याग करने का संकल्प लेते हैं जिसकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं होती । निरंजन ने अपनी सबसे प्रिय चीज धूम्रपान का त्याग करने का संकल्प लेकर सही मायने में तर्पण किया । काश ! सभी ऐसा करते !