दहन
मारा था युगों पहले पर कहां मरण होता है
सालों साल जलाते पर कहां दहन होता है
अब भी तो देवी का घर घर में पूजन होता है
वहीं कीसी कोने में नारी का शोषण होता है
मारते हैं अब भी कन्या अस्तीत्व भ्रूण में
कहीं कहीं पर उसका दहेज मरण होता है
परिवार को लेके दिनभर धुरी पे घूमती है
फिर भी उसकी नाकारी का वर्णन होता है
जाने कितने ऐब गिनाए जाते हैं उसमें
राहों में द्रौपदी का अब चीरहरण होता है
आंखें खोलें हम सब अपने अंतश में देखें
तब असली के रावण का सही दहन होता है
— पुष्पा “स्वाती”