कविता
जिंदगी की वीरानियों को समेटने की नाकाम कोशिशें ,
ले आती हैं इंसान को जब कभी दोराहे पर
बिखर जाता है एक अंधेरा से चारों तरफ ।
सुलगने लगता है शांत पड़ा अहसास भी
दहकती हुई अनगिनत भट्टियों की तरह ।
तपिश धूप की हो या विचारों की बहती धारा की ,
जला देती है मंजिलों की ओर जाने वाले पथ को भी ।
लहराता हुआ पर्दा भी दिखा देता है एक झलक जब चाँद की ,
एक सरसराहट सी दे जाती है जैसे चांदनी की छटा
मदहोशी का आलम न पूछना उस जलते हुए चिराग से ,
अनजान बनकर रहता है जो खुद के जलाए हुए आशियाने से ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़