प्रणाम का सीधा संबंध प्रणत शब्द से है। जिसका अर्थ होता है विनीत होना, नम्र होना और किसी के सामने सिर झुकाना। प्राचीन काल से प्रणाम की परंपरा रही है। जब कोई व्यक्ति अपने से बड़ों के पास जाता है, तो वह प्रणाम करता है।
हर व्यक्ति की कामनाएं अनंत होती हैं। कैसी कामना लेकर वह व्यक्ति अपने से बड़ों के पास गया है।यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है। प्रणत व्यक्ति अपने दोनों हाथों की अंजली अपने सीने से लगाकर बड़ों को प्रणाम इस तरह करता है कि वह अपने दोनों हाथ जोड़कर हाथों का पात्र बनाकर प्रणाम कर रहा है। प्रणाम के समय दोनों हाथ की अंजली सीने से सटी हुई होनी चाहिए।
ऐसे ही प्रणाम करने की परंपरा रही है, लेकिन प्राचीन गुरुकुलों में दंडवत प्रणाम का विधान था। जिसका अर्थ है बड़ों के पैर के आगे लेट जाना। इसका उद्देश्य यह था कि गुरु के पैरों के अंगूठे से जो ऊर्जा प्रवाह हो रही है उसे अपने मस्तक पर धारण करना। इसी ऊर्जा के प्रभाव से शिष्य के जीवन में परिवर्तन होने लगता है। इसके अतिरिक्त हाथ उठाकर भी आशीर्वाद देने का विधान है। इस मुद्रा का भी वही प्रभाव होता है कि हाथ की उंगलियों से निकली ऊर्जा प्रवाह शिष्य के मस्तिष्क में प्रवेश करें।
बहरहाल, आज के परिवेश में प्रणाम करने की जो परंपरा है, वह उचित प्रतीत नहीं होती। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रणाम करने वाला न कोई पात्र लेकर या कोई कामना लेकर अपने से बड़ों को प्रणाम करता है और न ही बड़े उन्हें समुचित रूप से आशीर्वाद देते हैं। दोनों तरफ से नकली कारोबार चलता रहता है। इसका परिणाम यह है कि प्रणाम करने वाले तमाम लोग जिस प्रकार इन दिनों प्रणाम करते हैं, उससे ऐसा लगता है कि वे एक नाटक कर रहे हैं। प्रणाम तो हृदय से निकलने वाली कामनाएं हैं, एक आमंत्रण है। केवल भक्त की आंखों को देखकर ही यह बताया जा सकता है कि प्रणाम असली है या नकली।
हमारे यहां प्रणाम हृदय से किया जाता है और जब उस प्रणाम को आशीर्वाद मिलता है तो उसका प्रत्यक्ष फल भी मिलता है, लेकिन शर्त यह है कि प्रणाम कितनी सच्चाई से किया गया है। प्रणाम सीधी तरह से बड़ों के समक्ष आत्मनिवेदन है और आत्म निवेदन कभी भी नकली नहीं होगा। जिन लोगों को अपने से बड़ों का आशीर्वाद चाहिए तो श्रद्धापूर्वक प्रणाम की मुद्रा में खड़ा होना चाहिए, तभी बड़ों के हृदय से निकला एक-एक शब्द उसके जीवन में परिवर्तन ला सकता है।
हिंदू धर्म में मनुष्य के चार गुरु माने जाते हैं। माता,पिता,आचार्य और सद्गुरु। एक शिशु की प्रथम गुरु उसकी माता होती है। जो उस मूक प्राणी को वाणी प्रदान करती है। प्रायः अच्छे घरों में माता बालक को बोलना सिखाने के लिए “जय” शब्द का उच्चारण कराने का अभ्यास कराती है। इसका अर्थ दूसरों को प्रणाम या नमस्कार करना है। सभ्यता के विकास में यह प्रणाम या नमस्कार भी तीन प्रकार का हो जाता है। समय, स्थान, भाषा, धर्म और अवस्था के अनुरूप प्रणाम करने की विधि और बोले जाने वाले शब्द भी भिन्न भिन्न हो जाते हैं। पहला प्रणाम समान आयु के सामान्य जनों को किया जाता है। दूसरा अपने से बड़ों के प्रति हाथ जोड़ कर किया जाता है। तीसरा प्रणाम श्रद्धाभाव में अति विशिष्ट पुरुषों के प्रति किया जाता है। ये अति विशिष्ट पुरुष हैं परमात्मा, देवता, माता, पिता, आचार्य और गुरुदेव। सद्ग्रंथों में आत्मिक ज्ञान या मंत्रदाता गुरु का दर्जा अति उच्चतम वर्णन किया है जिन्हें दण्डवत् प्रणाम करने का विधान है। प्रणाम करने वाला भक्त अपने शरीर के आठ अंग दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, पेट और मस्तक भूमि पर स्पर्श कर के अर्थात् सीधा दण्ड के समान लेट कर अपने वंदनीय को प्रणाम करता है। इसमें उसका भाव यह होता है कि मैं आपके सम्मुख मन वचन कर्म से समर्पण हूँ। वंदना करते हुए आप का आशीर्वाद मांगता हूँ। मुझ असमर्थ को अपनी आज्ञा और सामर्थ्य प्रदान कर उठ कर जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दें।
महाभारत का युद्ध चल रहा था।
एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर “भीष्म पितामह” घोषणा कर देते हैं कि “मैं कल पांडवों का वध कर दूँगा” उनकी घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ गई थी। भीष्म की क्षमताओं के बारे में सभी को पता था इसलिए सभी किसी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए थे। तब श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा अभी मेरे साथ चलो।
श्री कृष्ण द्रौपदी को लेकर सीधे भीष्म पितामह के शिविर में पहुँच गए। शिविर के बाहर खड़े होकर उन्होंने द्रोपदी से कहा कि अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम करो। द्रौपदी ने अन्दर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने “अखंड सौभाग्यवती भव” का आशीर्वाद दे दिया। फिर उन्होंने द्रोपदी से पूछा कि “वत्स, तुम इतनी रात में अकेली यहाँ कैसे आई हो, क्या तुमको श्री कृष्ण यहाँ लेकर आये है” ? तब द्रोपदी ने कहा कि “हां और वे कक्ष के बाहर खड़े हैं”।
तब भीष्म भी कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक दूसरे को प्रणाम किया। भीष्म ने कहा – “मेरे एक वचन को मेरे ही दूसरे वचन से काट देने का काम श्री कृष्ण ही कर सकते है”।
शिविर से वापस लौटते समय श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि “तुम्हारे द्वारा एक बार पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया है। अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि को प्रणाम करती होती और दुर्योधन- दुःशासन आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होंती। तो शायद इस युद्ध की नौबत ही न आती।
तात्पर्य यह है कि वर्तमान में हमारे घरों में जो इतनी समस्याए हैं। उनका भी मूल कारण यही है कि जाने अनजाने अक्सर घर के बड़ों की उपेक्षा हो जाती है। यदि घर के बच्चे और बहुएँ प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लें तो, शायद किसी भी घर में कभी कोई क्लेश न हो। बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं उनको कोई “अस्त्र-शस्त्र” नहीं भेद सकता है। सभी इस संस्कृति को सुनिश्चित कर नियमबद्ध करें तो घर स्वर्ग बन जायेगा।
भारत में हाथ जोड़ कर प्रणाम करने की प्रचलित पद्धति एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। हाथ जोड़ कर आप जोर से बोल नहीं सकते, अधिक क्रोध नहीं कर सकते और भाग नहीं सकते। यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें एक मनोवैज्ञानिक दबाव होता है। इस प्रकार प्रणाम करने से सामने वाला व्यक्ति अपने आप ही विनम्र हो जाता है।
इसका आध्यात्मिक रहस्य भी है। दाहिना हाथ आचार अर्थात धर्म और बायां हाथ विचार अर्थात दर्शन का होता है। नमस्कार करते समय दायां हाथ बाएं हाथ से जुड़ता है। शरीर में दाईं ओर इड़ा और बांईं ओर पिंगला नाड़ी होती है तथा मस्तिष्क पर त्रिकुटि के स्थान पर शुष्मना का होना पाया जाता है। अत: नमस्कार करते समय इड़ा,पिंगला के पास पहुंचती है तथा सिर श्रृद्धा से झुका हुआ होता है।
हाथ जोड़ने से शरीर के रक्त संचार में प्रवाह आता है। मनुष्य के आधे शरीर में सकारात्मक आयन और आधे में नकारात्मक आयन विद्यमान होते हैं। हाथ जोड़ने पर दोनों आयनों के मिलने से ऊर्जा का प्रवाह होता है। जिससे शरीर में सकारात्मकता का समावेश होता है। किसी को प्रणाम करने के फलस्वरूप आशीर्वाद की प्राप्ति होती है और उसका आध्यामिक विकास होता है।
प्रणाम प्रेम है, प्रणाम अनुशासन है, प्रणाम शीतलता है, प्रणाम आदर सिखाता है, प्रणाम से सुविचार आते हैं, प्रणाम झुकना सिखाता है, प्रणाम क्रोध मिटाता है, प्रणाम अहंकार मिटाता है, प्रणाम हमारी संस्कृति है। इस संस्कृति को अपने हृदय से लगा कर रखना हम सबका कर्तव्य है।
— निशा नंदिनी
तिनसुकिया असम