कविता

हवा का झोंका

” झोंका हवा का ”

 

हवा का एक झोंका हूँ मैं

आगे  बढ़ता  जाता  हूँ

मुड़कर देखना मेरा स्वभाव नहीं

तभी  मंजिल   पाता   हूँ   ।

 

मेरे  आवेग  के  आगे

कोई  ठहर  नहीं  पाता

खड़ा हुआ जो विघ्न बनके

पल   में   है   ढह   जाता  ।

 

अपने कर्म पथ पर  चलूँ

है  यही  मेरा   सिद्धांत

पूर्ण न कर लूँ कर्म जब तक

रहता  है मन  मेरा  अशांत  ।

 

होता है मन जब शांत मेरा

शीतलता प्रदान करता हूँ

चुरा कर फूलों से सुगंध

चहुँ  दिशा  महकाता   हूँ ।

 

बीच  सफर में  थककर

बैठना  मेरा  काम  नहीं

मंजिल तक पहुँचे  बिना

लेता  मैं   विश्राम  नहीं  ।

 

सिखलाता हूँ सबको मैं

निरन्तर चलना ही है जीवन

ठहर जाना मृत्यु  समान

निरन्तरता है जीवन  दर्शन ।

 

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना की कलम से ।

 

 

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]