लघुकथा – आह वर्तमान !
“बड़े उपदेशक बने फिरते हो! आज के युग मे ऐसी बातें कौन करता है! तुम संन्यासी हो संन्यासी। आज के बच्चे तुम्हारी तरह पुराने ख्यालात बाले नहीं है। आज के बच्चे हैं कोई मज़ाक नहीं। उनकी अपनी निजी ज़िन्दगी ! तुम करते क्या हो ? तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है बच्चों से कुछ कहने का। बाप ही तो हो कोई एहसान है क्या? गलत नहीं लगता तुम्हें बच्चों को सही राह दिखाना।”
कहते हुए रीमा ने अपने पति के सर से घाव का निशान पोंछा, जो अभी कुछ देर पहले बेटे ने थप्पड़ मारकर दिया था। शेखर का घाव उतना दर्द नहीं दे रहा था जितना उसके अंदर के दर्द ने आज उसको दिया था, शेखर के घाव देखकर रीमा की आंखों से गंगा बह निकली।
— विनय भारत शर्मा