घुंघट
” घुंघट ”
बड़ी बहू के सिर से कभी
सरकता ना था घुंघट,
किसी के कहने से वह
खोलती न थी घूंघट का पट।
कोई भी ना देख पाता था
उसका प्यारा सा मुखड़ा,
पूरा गांव रोता था बस
इसी बात का ही दुखड़ा।
लाख कामों के बीच भी
कभी उससे गलती ना हुई
कौन है घूंघट की ओट में
कोई दमदार या छुई मुई?
सास के डर से दूबकी हुई थी
घुंघट के आड़ में बेचारी,
देख तरस आता था सबको
उसकी बेबसी और लाचारी।
गिरी एक दिन औंधे मुंह
दिखा ना उसे सामने था पत्थर,
खून से लथपथ हो गई
खाकर जबरदस्त टक्कर।
उधर सास जोर से भन्नाई
अंधी है क्या दिखता नहीं,
दिनदहाड़े गिरती है तू
नजर तुझे कुछ आता नहीं।
डर कर बेचारी छुप गई
घुंघट की ओट में फिर से,
ढक लिया मुखड़ा अपना
भीगे नैना उसकी अश्रु नीर से।
आई ब्याहके छोटी बहू
घुंघट में रही बस एक दिन,
उतार फेंकी साड़ी उसने
पहन ली जींस दूसरे दिन।
देखा सांस में दो जल भून गई
कहां बहू से चिल्लाकर,
नई नवेली दुल्हन हो तुम
रखो मुखड़ा घुंघट में छुपा कर।
क्या खराबी है मुखड़े में
बहु ने सास को दिया उत्तर,
क्यों छुपाऊं मुखड़ा अपना
घुंघट के पीछे सज-धज किर।
शहर की लड़की थी वह
पढ़ी-लिखी,विचार आधुनिक,
समाज की कुरीतियों की
है वह बहुत बड़ी आलोचक ।
नारियों की स्वतंत्रता की
करती बातें वह खुलकर,
नहीं जीना आता उससे
किसी के भय से दुबक कर।
पति के संग चल दी वह
देखने थिएटर में पिक्चर,
रखकर ताक में घूंघट प्रथा
सास के गुस्से से हो बेखबर।
देख छोटी बहू की चाल चलन
सास ने पीट लिया अपना सर,
यह कैसी बेशर्म को ले आया
बेटा तू ब्याह के अपने घर।
छोटी बहू, सास की बातें सुन
बड़ी बहू ने घुंघट पट खोला,
दर्शन कर लिए तब सबने
उसका सुंदर मुखड़ा भोला भाला।
ज्योत्स्ना पाॅल!
पूर्णतः मौलिक!