गीत/नवगीत

मेरे शहर के लोग

मेरी एक पुरानी रचना जो मैंने अयोध्या के मंदिर-मसजिद विवाद के
समय लिखी थी, आप सबको समर्पित है……..

” मेरे शहर के लोग ”

जाने किसकी नज़र लगी
कुछ बदले से हैं,मेरे शहर के लोग ।

सूनी-सूनी सी हैं गलियाँ
दिलों के बीच बढ़ गईं दूरियां
जाने क्या हैं मज़बूरियाँ
दहशत में जीते हैं, मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।

बगियां हो गईं वीरान
छीन गई कलियों की मुस्कान
खाली पड़ा खुशियों का खलिहान
अजीब सी तन्हाई में घिरे हैं,मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।

भाई-भाई के खून का प्यासा
कौन किसे दे दिलासा
मानवता की बदल गई परिभाषा
रिश्तों के शव ढो रहे हैं, मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।

बहुत मना चुके हैं मातम
लौट आये अब खुशियों का मौसम
बरसे प्यार बूंदों में रिम झिम
नये सपने संजो रहे हैं ,मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।

जाने किसकी नज़र लगी
कुछ बदले से हैं , मेरे शहर के लोग ।

पूर्णतः मौलिक
ज्योत्स्ना पाॅल

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]