मेरे शहर के लोग
मेरी एक पुरानी रचना जो मैंने अयोध्या के मंदिर-मसजिद विवाद के
समय लिखी थी, आप सबको समर्पित है……..
” मेरे शहर के लोग ”
जाने किसकी नज़र लगी
कुछ बदले से हैं,मेरे शहर के लोग ।
सूनी-सूनी सी हैं गलियाँ
दिलों के बीच बढ़ गईं दूरियां
जाने क्या हैं मज़बूरियाँ
दहशत में जीते हैं, मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।
बगियां हो गईं वीरान
छीन गई कलियों की मुस्कान
खाली पड़ा खुशियों का खलिहान
अजीब सी तन्हाई में घिरे हैं,मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।
भाई-भाई के खून का प्यासा
कौन किसे दे दिलासा
मानवता की बदल गई परिभाषा
रिश्तों के शव ढो रहे हैं, मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।
बहुत मना चुके हैं मातम
लौट आये अब खुशियों का मौसम
बरसे प्यार बूंदों में रिम झिम
नये सपने संजो रहे हैं ,मेरे शहर के लोग ।
कुछ बदले से हैं मेरे शहर के लोग ।
जाने किसकी नज़र लगी
कुछ बदले से हैं , मेरे शहर के लोग ।
पूर्णतः मौलिक
ज्योत्स्ना पाॅल