कविता

कवि का चिंतन

रूठे ना कवि की कलम उससे
थमे ना उसके विचारों का कारवां,
एक बार चल पड़़ी, चले वहां तक,
जहां तक फैला हो नीला आसमां।
थके ना हाथ, रूठे चाहे जीवन
टूटे ना विचारों का घरौंदा,
उड़े सप्न-पाखी पंख फैलाकर
जैसे दूर तक उड़े कोई परिंदा।
सूखे ना कलम की काली स्याही
उकेरे रंग बिरंगे जीवन की कहानी,
मिटे ना जो सदियों तक पन्नों से
चढ़े रंग जैसी अमावस रजनी।
रचे एक सुनहरा ऐसा इतिहास
बहे धारा उसकी निरंतर चिरंतन,
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़े वह गाथा
अमर हो जाए ‘कवि का चिंतन’।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]