कवि का चिंतन
रूठे ना कवि की कलम उससे
थमे ना उसके विचारों का कारवां,
एक बार चल पड़़ी, चले वहां तक,
जहां तक फैला हो नीला आसमां।
थके ना हाथ, रूठे चाहे जीवन
टूटे ना विचारों का घरौंदा,
उड़े सप्न-पाखी पंख फैलाकर
जैसे दूर तक उड़े कोई परिंदा।
सूखे ना कलम की काली स्याही
उकेरे रंग बिरंगे जीवन की कहानी,
मिटे ना जो सदियों तक पन्नों से
चढ़े रंग जैसी अमावस रजनी।
रचे एक सुनहरा ऐसा इतिहास
बहे धारा उसकी निरंतर चिरंतन,
पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़े वह गाथा
अमर हो जाए ‘कवि का चिंतन’।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।