दिया और मैं
देहरी पर माटी का दिया जल रहा था।
रात की गोद में सपना सा पल रहा था।
कभी हवा, कभी अँधेरे से लड़ रहा था।
मिटटी का था पर ज़रा न डर रहा था।
मैंने कहा क्यों बेवजह ही इतराये जाते हो।
किस के आतिथ्य को प्रकाश लुटाए जाते हो।
तुम्हारे जलने से कुछ नहीं बदलेगा।
अँधेरा घना है, ज़िद्दी है नहीं टलेगा।
दीप बोला मिट्टी से बना मिट्टी में मिल जाना है।
बन्धु मेरे बोलो तो फिर काहे का इतराना है।
हाँ जलता हूँ….
ज्योतिर्मय जग करता हूँ।
कुटि से महलों तक खुशियां भरता हूँ।
कच्ची मिट्टी का हूँ पर सच्ची प्रीत निभाता हूँ।
बुझते बुझते भी एक दिया रोशन कर जाता हूँ।
मैंने पूछा मित्र मेरे एक बात बता दे तू।
मिट्टी के हम दोनों, कैसे मुझसे जुदा है तू।
जलता तो मैं भी बहुत हूँ ….
जब कोई मुझसे बेहतर करता है।
मित्र कोई मेरा मुझसे आगे बढ़ता है।
दीप हँस कर बोला…
जलना बुरा नहीं है बन्धु।
अगर जले मेरी तरह से तू।
तू जल किसी की आस रखने के लिए।
तू जल किसी का विश्वास परखने के लिए।
तू जल रात की मांग में मोतियों सा जड़ने के लिए।
तू जल अंतिम साँस तक अंधियारे से लड़ने के लिए।
तू जल पथिक को दिशा बोध कराने के लिए।
तू जल धरा से अम्बर तक रोशनी लुटाने के लिए।
और सुन बन्धु…
इस दफा दिवाली पर काम एक नेक करना।
दोस्तों को उपहार में मिट्टी का दिया भेंट करना।