दीपों वाली दिवाली
आँखें चौंधिया गई सबकी
बिजली की रोशनी में,
अब वो दिवाली की खुशियां कहां,
जो मिट्टी के दीयों की लौ में थी।
मिट्टी की सोंधी सोंधी खुशबू
हवा में घुल जाया करती थी,
अमावस रजनी की तमस में
जलते दीपों की लौ,
जुगनू होने का आभास दिला जाती थी।
शीतल बयार तन को
सहला जाती थी प्रेम से,
अब उष्ण होकर वही बयार
स्पर्श कर तन को,
मन को दुखी कर जाती है।
मधुर गीत, संगीत कानों में
मधु रस घोल जाती थी,
आज पटाखों की कर्ण भेदी ध्वनि
हमारे श्रवण शक्ति को जैसे
ललकार रही हो।
और कह रही हो,
तुम बधिर होने जा रहे हो।
निकलकर पटाखों से
विषैली हवा, घुलकर हवाओं में,
हमारे श्वसन तंत्र को
जैसे ध्वस्त करने के लिए बेचैन हो।
ऐसी दिवाली, जिससे पर्यावरण
सुरक्षित नहीं है,
ऐसी दिवाली, जिससे जन जीवन
सुरक्षित नहीं है,
जाने किस को भाती है,
और बधाई देने को आत्मा ललचाती है।
आओ मिलकर मनाएं
‘दीपों वाली दिवाली’,
बिजली की खपत होगी कम,
होगी खुशियों वाली दिवाली।
मिलकर बच्चों को समझाए,
पटाखों की बुराइयां,
वैसी दिवाली मनाए सब,
जिस में छुपी है अच्छाइयां।
यदि एक बार लौट कर आए,
वही पुरानी, दीपों वाली दिवाली,
वही भाईचारा, वही मैत्री वाली दिवाली,
तो लौट कर आएगी पुनः
वही मीठी मीठी खुशियों वाली दिवाली।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।