आत्मविश्वास
विनीता बहुत खुश थी. उसे लगातार तीसरी बार विभाग से सर्वश्रेष्ठ अध्यापिका का पुरस्कार व प्रमाणपत्र जो मिला था.
उसने छात्राओं के साथ मेहनत भी तो दिल लगाकर की थी. यह उसका विश्वास और छात्राओं के दिल में पनपाया हुआ आत्मविश्वास ही तो था, कि लगातार तीसरे साल भी दसवीं कक्षा की 5 छात्राएं 80 प्रतिशत से अधिक अंक लाई थीं, वो भी हिंदी में!
”वो भी हिंदी में!” विनीता अपने आप से कह रही थी, वरना अभिभावकों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
”मैम, मैं हिंदी पढ़ने बैठती थी, और मेरी ममी आकर मेरी किताब छीन लेती थीं. ‘हिंदी भी कोई पढ़ने का विषय है! यह तो चलते-फिरते आ जाता है.’ ममी का कहना होता था.” जयश्री ने कहा था, जो 100 में से 96 अंक लाई थी.”
”फिर कैसे पढ़ती हो हिंदी?” विनीता ने क्लास में ही पूछा था.
”मैम, पहली बात तो मुझे हिंदी में ज्यादा कुछ पढ़ना ही नहीं पड़ता है, आप कक्षा में ही इतनी अच्छी तरह समझा देती हैं, कि बात मन में गहरे उतर जाती है. दूसरी बात यह कि ममी के ऑफिस से आने से पहले ही मैं कक्षा में पढ़ाए गए पाठ की पुनरावृत्ति कर लेती हूं.” जयश्री का कहना था.
ऋतु को कुछ बोलने के लिए हाथ खड़ा करने पर विनीता ने उसकी बात भी सुनी थी, ”मैम मेरे साथ भी ऐसा ही होता है. मैं हिंदी की किताब-कॉपी निकालती हूं और मेरी बहिन चिल्लाती है- ‘मSSSSमी.’ बस ममी आकर हिंदी की पढ़ाई बंद करवा देती हैं.”
”मैम, मैं तो ममी को सीधा बोलती हूं, कि हमारी मैम बोलती हैं- ‘हिंदी हमारी धरोहर है, इसे हम ही नहीं सहेजेंगे, तो कौन सहेजेगा!’ इसी कारण मेरे 100 में से 97 अंक आए हैं.” सुनीता भला कहां चुप रहती!
छात्राओं के इसी आत्मविश्वास ने विभाग में विनीता मान-सम्मान दिलाया था.
बच्चों के कोमल मन पर इस प्रकार आत्मविश्वास के बीज बोने से हमारी किसी भी धरोहर की फसल सुरक्षित रहती है. विनीता के इसी प्रयास ने छात्राओं हिंदी भाषा की धरोहर को बढ़ने-बढ़ाने की पराकाष्ठा पर पहुंचाने में सफलता प्राप्त की.