कविता

भिखारी

वह जग को भला क्या देगा
जो स्वयं ही है भिखारी,
रहती सदा ईश से कामना
हर लो प्रभु!मेरी व्यथा सारी।
कर दो सुख की बरसातें
बढ़े न दुख की अगन,
पूरी कर दो मन की कामना
मिट जाए सारा देह- तपन।
निस्वार्थ उपासना होती नहीं
मन में होती स्वार्थ की भावना,
सबसे अधिक मिले मुझे
यही रहती मन में सदा कामना।
लालसा मन में सुख, समृद्धि बढ़े
मांगे न “बढ़े प्रेम की बोल”,
बलिहारी जाऊं मैं उस पर
जो जग में है सबसे अनमोल।
छाये न जीवन में दुख के बादल
बिखरती रहे सदा सुख- उजाला,
निष्कंटक रहे जीवन- पथ सदा
पियुं खुशी- सोम- रस, भर प्याला।
जो मांग ले मन की शांति
उससे बड़ा न कोई है धन,
चाहे जितनी भी हो संपत्ति
शांति न हो, वह बड़ा निर्धन।
मांग लो शांति धन प्रभु से
शेष धन यूं ही मिल जाएगा,
प्रभु के दरबार में फिर तू
भिखारी न कभी कहलायेगा।
क्योंकि दाता एक राम
भिखारी सारी दुनिया,
वही एक नाम जिस पर
बलिहारी सारी दुनिया।।

स्वरचित- ज्योत्सना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]