हमीद के दोहे
लफ्फाज़ी होती रही, हुई तरक़्क़ी सर्द।
समझ नहीं ये पा रहे, सत्ता के हमदर्द।
अबलाओं पर ज़ुल्म कर, बनते हैं जो मर्द।
निन्दा जमकर कीजिये, मिलें जहाँ बेदर्द।
डंका अब बजने लगा, उसका भी घनघोर।
एक ज़माने तक रहा, जो इक नामी चोर।
हम सब ज़िम्मेदार हैं, सिर्फ नहीं इक आध।
भूख कराती है अगर, मानव से अपराध।
भागे भीगे ही रहे, उस दम मेरे नैन।
कर्बल के मज़लूम जब, आये याद हुसैन।
— हमीद कानपुरी