ख़्वाहिशें
बहुत शोर है
भीतर गहराई में
मानो टकरा रहीं हो
सभी ख़्वाहिशें आपस में
मगर कुछ ख़्वाहिशें
ये समझ गई हैं
उनके पूरे होने की
कोई आस नहीं है
इसलिए अब वो चुपचाप
खामोश होकर कहीं
मन के कोने में सुप्त हैं
पर कभी -कभी
मन की उड़ान को देख
आती है बजूद में मगर
जानती हैं भीतर- भीतर
वो कभी नहीं होंगी पूर्ण
वो ख्वाहिशें, ख़्वाहिशें ही रहेंगी।
कामनी गुप्ता