गीत/नवगीत

मधुगीति – मग रहे कितने सुगम जगती में

मग रहे कितने सुगम जगती में,
पंचभूतों की प्रत्येक व्याप्ति में;
सुषुप्ति जागृति विरक्ति में,
मुक्ति अभिव्यक्ति और भुक्ति में !
काया हर क्या न क्या है कर चहती,
माया में कहाँ कहाँ है भ्रमती;
करती मृगया तो कभी मृग होती,
कभी सब छोड़ कहीं चल देती !
सोचते ही है सृजन हो जाता,
मात्र चुनना ही एक पथ होता;
उसमें गहराइयाँ उभर आतीं,
खाइयाँ काइयाँ प्रकट होतीं !
धरणि तल कितनीं रहीं धाराएँ,
अजस्र राहें औ वेदनाएँ;
कितने आनन्द स्रोत गहमाएँ,
कितने आलोक लोक दरशाएँ !
त्रिलोक तरजे रहे द्रष्टि में,
तटस्थित कितने रहे त्रिकुटी में;
‘मधु’ माधव से मिल समाधि में,
रह गए उनके मार्ग दर्शन में !
गोपाल बघेल ‘मधु’