ग़ज़ल – दुआ
जाने कहाँ से आया था, जाने किधर गया
आये न आये, आने का वादा तो ‘कर’ गया
अकसर स्वतंत्र होते ही, उँचा उठा धुँआ
जिसने धुएँ को कैद किया, घुट कर ‘मर’ गया
अब सिर्फ कल्पनाओं में, उड़ता रहेगा वो
ऊँची ऊड़ान में ही, परिंदे का ‘पर’ गया
सोना समझ कर लाए थे, सोना नहीं है वो
उसके गले के हार का, पानी ‘उतर’ गया
तो बेच कर ही लौटेगा, निश्चित वो अपने स्वर
वो स्वर को बेचने के, शिविर में ‘अगर’ गया
लुटने की चिंता रेखा है, महलों के भाल पर
झुग्गियों के मन से, लुटने –लुटाने का ‘डर’ गया
कम्पयूटरों के मुँह से, निकलती हैं अब दुआ
शायद इसीलिए ही अब, दुआ का ‘असर’ गया
— नसरीन अली “निधि”