कविता
सोचती हूँ कुछ कविता लिखूँ तुम पर
कुछ गीत भी लिखने को दिल करता है ।
शब्द नहीं मिल रहे चलो आज चंद
अहसास
ही लिख देती हूं अपने अन्दाज में
क्यों रुलाते हो तुम मुझे रोज कुछ इस तरह
जानते हो न कि मैं तुमसे नाराज नहीं रह सकती ।
सुकून हो तुम मेरे दिल का जानकर भी क्यों अनजान रहते हो ।
क्या सबूत देना जरूरी होता है हर बार इश्क़ में ।
नहीं रह जाता तुम्हारी इस बेरुखी के साथ सदियों से दबा रही हूँ अपने जज्बात
सिर्फ एक प्यार की अभिलाषा में ।
क्या प्यार की भाषा से तुम बाकिफ नहीं हो
या जानकर भी अनजान रहने की आदत है
चलो छोड़ो क्या समझोगे तुम उन जज्बातों को
जो दर्द के गहन साये में आराम देते हैं ।
भुला देते हैं मेरे उस दर्द को जो जिस्म पाने की ख्वाइशों में एक दर्द को जन्म दे गया ।
वो एक सच्ची जिंदगी जीने की कशिश ,
न दे पाई जो सुकून कभी उस ममता को ।
पुकारती रही उस अनजान साये को दर्द से लबरेज होकर हर पल हर घड़ी हर वक़्त ।
क्या मिला लेकिन उस रूह को जो पाक थी
निश्छल थी,सिर्फ एक तमन्ना लिए अपने दिल में ।
छोड़ गई अपने पीछे अपने अंश को रोने के लिए ,
पिया मिलन कि अनौखी आस संजोये मन में ,
याद है आज भी वो आंसुओं तर बतर उस रूह का चेहरा ,
खामोशी ओढ़े हुए खुली आँखों से देखे थे
जिसने कभी पिया के साथ रहने के सपने।
बीत गयी वो रात भी पुकारते हुए तुम को
लेकिन तुम्हें न आना था ,न तुम आये कभी
तुम्हें भी तो सिर्फ प्यार की ही तलाश थी
या चाहत थी सिर्फ जिस्म को सराहने की ।
क्या होना था क्या हो गया ,आत्मा को लूटकर परमात्मा से मिलन ही सत्य है ।
समझदार तो तुम पहले ही बहुत थे ,
शायद अब जीतना भी आ गया था दिलों को ।
क्योंकि इस विशाल समन्दर के रहने वाले
एक मगरमच्छ हो तुम ।
प्यार की बातों से बहलाकर नारी को जीतना सीखा है ।
सच्च कहूँ तो आज भी तुम आजाद हो ,
प्यार को अद्भुत भाषा गढ़ने में सक्षम हो तुम ।
आदिकाल से चली आ रही प्रथाओं की एक महफ़िल हो तुम ।
हाँ तुम पुरुष ही तो हो जिसने सीखा है
औरत को तोड़ना ,मजबूरियों की आड़ लेकर ।
कोमल तो नहीं आज भी ,सिर्फ प्यार की उम्मीद में हारी है ।
तुम पुरुष हो आदि काल से अपने ही चिंतन में खोए हुए ।
मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है तुम्हारे लिए जीना और सिर्फ जीना प्यार की आशा में ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़