विपरीत कोण भी आपस में बराबर होते हैं !
मैंने चौराहे पर आज एक राजनीतिक दल का जुलूस देखा। जिसकी अगुवाई एक सज्जननुमा नेताजी के हाथ में था, जो बीच-बीच में अपने भाषण की दाल को नारे का तड़का देकर जुलूस में शामिल कामन-मैनों को परोस रहे थे। हाँ यही नारा था उनका “मिले पहले हमको रोटी-दाल, रखो तुम अपना मेवा-पकवान।”
इस नारे का मंतव्य समझ में नहीं आया तो सोचा, हो न हो यह किसी हाई-फाई विकास पर मनरेगा टाइप लो-प्रोफाइल विकास, मने एक्सप्रेस-वे पर पगडंडी को तरजीह देने जैसी बात हो! बस फिर क्या था, मेरा मन कामन-मैन-हितचिंतक उस नेता के प्रति श्रद्धावनत हो गया और मैंने उसके दल को पक्के तौर पर गरीबोन्मुख कामन-मैंन का हिमायती मान लिया। इधर जुलूस में भी गरीबोन्मत्त कामन-मैंनों पर इस नारे की दाल गलती हुई दिखाई पड़ी क्योंकि वे भी उसे जोर-शोर से दुहरा रहे थे। लेकिन नारे पर ध्यान जाते ही मुझे उस दिन राह चलते मिल गए घिसई और उसकी बात याद हो आई।
असल में, विकास की बाट जोह रहे घिसई का चेहरा किसी अति पिछड़े रूरल एरिया की तरह चाटी खटाई जैसा ही है। लेकिन उस दिन उसके मुखमंडल छायी खुशी की परत देख मैं थोड़ा आश्चर्य में पड़ गया और इसके पीछे का कारण तलाशने लग गया।पता चला कि वह किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यालय से होकर आ रहा है ! उसे प्रसन्न-वदन देख मैंने यही सोचा था ‘जरूर वहीं से इसे भावी विकास की कोई आहट मिली होगी।’ था तो वह जल्दी में, फिर भी मुझे देखते ही ठिठक पड़ा और उस दिन की अपनी आपबीती भी सुनाई थी।
उसके अनुसार वह सुबह-सुबह लेबर चौराहे पर काम की तलाश में गया था। लेकिन काम न मिल पाने की निराशा में वापस लौटने ही वाला था, तभी कुछ लोग दिनभर के काम का वास्ता दे, उसे अपने साथ लिवा ले गए थे। आगे अपनी बात पर रहस्यात्मक आवरण चढ़ाते हुए वह बोला था –
“गुरू! कुछ पूँछो मत..ऊँहा हमइ मरीज की नाईं गुलगुल कुरसी पर बैठाय दिये रहिन..और..हमसे यह बताएन कि…ई कुर्सी खुशी मापक मशीन है..इसपर बैठाकर तुमाये लिये खुशी का पिलान बनाएंगे..सही में गुरू! कुछ तार-तूर ऊ कुर्सी मा से निकलि के याक टी वी में जुड़त रहा..हाँ..दिन भरि हमरे साथ मिलि ऊ सब खूब बातइ-वातइ किहेन, अउर बीचि-बीचि में ओके-फोके जइसन अंगरेजी में बोलि के मुस्काय-मुस्काय कागज पर कछु लिखत जात रहेन..।”
मेरे पल्ले उसकी बात नहीं पड़ रही थी। लेकिन उसकी खुशी के पीछे का कारण तलाशना था, इसीलिए उसे ध्यान से सुन रहा था।
आगे घिसई उसी अंदाज में बोला था –
“लेकिन गुरू! उनकी कोई बात हम सुनते अउर कहते कि हाँ.. ई बात हमका बढ़िया लागि…तो, उनमें कोउनऊ ससुरा कहेसि कि ये गरीब बहुत मक्कार होते है..ई तार पर इसका हाथ रखि के देखो..एहिसे इसके मन की बात का सही-सही पता चलेगा..”
घिसई ने एक बात और बतायी थी, उस दिन लेबर चौराहा जाने की जल्दी में वह अपने घर पर ही खाने की पोटली भूल गया था। वहाँ दोपहर में भूख जताने पर उसके सामने पहले “रोटी-दाल” और फिर “मेवा-पकवान” वाली थाली आयी, लेकिन बातों में उलझाकर थाली हटा ली गयी थी। इसके कुछ देर बाद भूख से “कौंकियाने” पर वह उन लोगों पर भड़कते हुए बोला, जैसा कि घिसई ने ही मुझे बताया था –
“गुरू! मैंने हड़का कर कहा..ये ल्यो आपन कुर्सी-फुर्सी..तार-तूर..अब हम चले..मान लिहे कि आज दोपहर तक हम बेगारी किहे…मुला अपने गाँव भर के लोगन को जरूर बताउब…तु सम्हें पार्टी वाले हमन के साथ मजाक-मजाक खेलथs..फिर तो गुरु..! ऊँहा सब हमार चिरौरी कइके हमसे पूँछै लागि दाल-रोटी कि मेवा-पकवान..कउन वाली पिलेट लाई..? हम बोले हमई दाल-रोटी मिलि जाई, उहई बहुत अहई..आपन मेवा-पकवान धरे रहो..।”
घिसई के अनुसार, उस दिन दाल-रोटी खाने के बाद ‘संझा’ तक उसके साथ यह “मजाक-मुजूक” वाला खेल चला था। बाद में जाते समय दाल-रोटी के सौ रूपये काट कर मजदूरी के दो सौ रूपये उसे दिया गया। उस दिन उसने मुझसे यही कहा था –
“गुरु..उन पार्टी वालों ने मेरी दाल-रोटी में भी कमीशन खा लिया..!” फिर भी वह इसी पर खुश था कि बिना कुछ किए-धरे खाली-पीली कुर्सी तोड़ने के उसे दो सौ रूपये मिल गए थे। उसे अपनी मुफ्तखोरी पर खुश होता देख मैंने क्षण भर के लिए ही सही उसे हिकारत भरी नजरों से देखा था।
लेकिन आज इस नारे को सुनते ही घिसई के प्रति मेरा नजरिया ही बदल गया। अब वह मेरे लिए करुणा का पात्र था। सोचा, जरूर इसी राजनीतिक दल के ‘वाररूम’ में उसे ले जाया गया होगा। जहाँ सेंसर-चेयर पर बैठाकर चुनावी सलाहकार विशेषज्ञ उसके साथ तरह-तरह की बातें कर संवेदी-मापक-उपकरण से उसके मनोभावों का परीक्षण किये होंगे। और मनोभाव में आ रहे परिवर्तन को मापने के दौरान, घिसई के अनुसार, “ओके-फोके” बोलते हुए “मुस्काय-मुस्काय” ऐसे ही “दाल-रोटी” टाइप के नारे गढ़ कागज पर नोट करते जा रहे होंगे !!
बेचारा वह घिसई ! उस दिन नाहक ही मैंनें उसे मुफ्तखोर समझ हिकारत से देखा। जबकि किसी राजनीतिक दल का नारा गढ़ने में सहयोग कर उसने देश की दशा-दिशा बदलने जैसा बड़ा काम करते हुए और मात्र दो सौ रुपल्ली में “गिनीपिग” बनना स्वीकार कर लिया था ! और फिर भी “वार-रूम” वाले वे पार्टी-कार्यकर्ता उसके खाने के पैसे में भी कमीशन खा गए..!! खैर यह तो अकेले घिसई की ही बात होगी।
लेकिन घिसई ने तो उस दिन यह भी बताया था कि ‘वार-रूम’ में एक बार तो वह डर गया था। लेकिन यह डर तब रफूचक्कर हो गया जब उसने वहाँ अमीर-गरीब ही नहीं, बल्कि जाति-धर्म और ऊँच-नीच जैसे सभी टाइप के लोगों की आवाजाही देखी। जहाँ उन्हें अपने-अपने वर्गानुसार संवेदी-मापक-उपकरणों से सुसज्जित कुर्सियों पर बैठाकर चुनावी-नारे गढ़ने का काम चल रहा था। खैर,
असल में क्या है कि, एकता में अनेकता वाले इस देश में तमाम समानांतर नारों का कोई मिलन बिंदु है ही नहीं। ले देकर कामन-मैन वाली एक तिर्यक रेखा ही है, जो इनपर कैंची चलाने की कवायद करती है। लेकिन इस कवायद में निर्मित हो जाने वाले विपरीत कोण भी आपस में बराबर होते हैं; भाई लोग यह गणितीय सूत्र भूलकर, इन कोणों के लिए भी परस्पर-विरोधी राजनीतिक-सूत्र ईजाद कर लेते हैं। और फिर इन सूत्रों के वशीकरण-मंत्र जैसे प्रयोग से मतदाताओं को अभिमंत्रित कर इस देश को एक ‘वार-रूम’ में तब्दील कर देते हैं।