लघुकथा

एक दो तीन

अभी-अभी रेडियो पर गाना बज रहा था- ”एक दो तीन, आजा मौसम रंगीन.”
गाना तो खत्म हो गया, पर स्मृतियों के वातायन से एक दो तीन का धुआं अभी भी उसकी आंखों को मिचमिचा रहा था.
”मैंने कल घर बदल लिया.” निर्मला ने कहा था.
”अब क्या नं. है नये घर का.” मैंने पूछा था.
”आइ एक सौ तेईस.”
”यानी ब्लॉक वही, पर मकान नं. एक दो तीन!” और वह नाराज हो गई थी.
उसे क्या पता, कि हमारे घर में सब गणित के सूत्रों के शैदाई हैं. हमारे फोन का नं. था 54321. मकान नं. 672 और गैस नं. 6724 यानी याद रखने के लिए आखिर में चौथे अंक का 4. एक बैंक अकाउंट का नं. 8383, तो दूसरे का 8484. ऐसे में आसानी से याद रखने के लिए एक दो तीन कहने में कोई हर्ज तो नहीं था! न जाने क्यों उसकी उदासी सातवें आसमान पर पहुंच गई.
दूसरे दिन हिंदी की सीनियर अध्यापिका विद्या ने उसको बधाई दी. वह मुंह फेरकर चल दी. बाद में निर्मला ने ही बताया था.
”मेरी बेटी की शादी हो गई.”आश्चर्य से मैं उसको देखती ही रह गई थी. इतना बड़ा खुशी का समाचार इतनी बेरुखी से!
”विद्या के भतीजे से उसकी दोस्ती हो गई थी, उसी से उसकी शादी भी हो गई.”
”कैसी रही शादी?”
”मैं कौन सा गई थी!”
”फिर शादी किसने करवाई?” मेरी हैरानी का पारावार नहीं था.
”मेरे भाई-भाभी ने, उस कलुए से.” आंखें झुकाए-झुकाए ही वह बोली थी.
”कलुआ! मेरी भाभी ने बहुत समझाया भी था. बचपन में तूने सिंधी स्कूल में चटखारे ले-लेकर उमर-मारुई और लीला-चनेसर के प्रेम के किस्से पढ़े थे. अब भी हिंदी की कक्षा में लैला-मजनू और शीरी-फरहाद के इश्क के किस्से बड़े प्रेम से पढ़ाती हो. वे सब कलुए ही तो थे! दीपा भी तो तुम्हारी क्लास में ही पढ़ती थी न! वही बता रही थी, कि मुझे इश्क का पाठ ममी ने ही पढ़ाया है. अब क्या हो गया? क्या वे सब बातें पढ़ाने के लिए ही थीं? इकलौती लड़की का कन्यादान नहीं करोगी, तो कल बेटे की शादी में कैसे बैठ पाओगी? उसके फेरों की अग्नि का धुआं तुम्हारी आंखें जलाएगा. मुझे नहीं मानना था, सो मैं नहीं मानी. इतनी बड़ी अवमानना कैसे बर्दाश्त कर पाती!” निर्मला फिर गुमसुम हो गई थी.
सच में बेटे की शादी के फेरों की अग्नि का मनभावन धुआं उसकी आंखें जला रहा था, यह हमारी आंखों देखी बात है.
अब भले ही बेटी-दामाद और उनके बच्चों का आना-जाना शुरु हो गया है, इकलौती बेटी का कन्यादान न कर पाने की कसक धुंएं की कड़वाहट अब भी उसकी आंखों को मिचमिचा रही है.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “एक दो तीन

  • लीला तिवानी

    कभी-कभी जीवन में एक ऐसा मोड़ आ जाता है, कि सबके समझाने पर भी बात समझ से बाहर हो जाती है और सही समय पर सही फैसला नहीं कर पाने की कसक हमेशा के लिए आंखों को मिचमिचाने वाला धुआं बन जाती है.

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