गज़ल
जो हल न हो सके उन चंद सवालों जैसी
ज़िंदगी होती है शतरंज की चालों जैसी
ये तो खुदगर्ज़ी की स्याही पुत गई वरना
रंगत अपनी थी बचपन में उजालों जैसी
वक्त कटता ही नहीं मेरा जब तू साथ न हो
एक दिन की भी जुदाई लगे सालों जैसी
तुम्हें करीब से देखा तो यकीं मुझको हुआ
तू हू-ब-हू है मेरे ख्वाबों-ख्यालों जैसी
आँसू, आहें, तनहाई और गम-ए-महबूब
किसके पास है दौलत इश्क वालों जैसी
— भरत मल्होत्रा