आरज़ू है कि दिल-ए-अज़ीज़ मेरे हो जाओ,
रुसवाई कर दो जमाने से,मेरी अमानत हो जाओ।
अबस आज़िज़ हैं गफ़लत ए तमन्नाएँ
मुकद्दर नहीं हो कि तुम असहाब हो जाओ।
ज़र्रे ज़र्रे में तलाशते नूर-ए-चश्म मेरे ,
मेरे आदिल आफ़ताब बन जाओ।
मुलाकातों के दौर यूँ मुनासिब नहीं
असल ही नहीं तो मेरा आइना ही बन जाओ।
तपिश-ए-जिन्दगी सुलगाती बेइन्तहा है,
मेरे आफ़ात की साया-ए-दीवार हो जाओ।
इल्म है मुझे तेरी तस्वीरे ज़हन में उकर आती हैं ,
नादिर है पाना तुम मेरे नफ़्स ही हो जाओ।
— युक्ति वार्ष्णेय “सरला”