कहानी

विवश ममता

नंदिनी और उसकी सासु मां, सरोजा एवं ससुर मि. गणेशन, भास्कर को एयरपोर्ट पर छोड़ने आए थे। भास्कर का इस वर्ष पीएचडी की पढ़ाई के लिए अमेरिका के एक यूनिवर्सिटी में सिलेक्शन हो गया था। सबने उसे लाख समझाया कि अपने ही देश में कर लो पीएचडी। पर.. उसने नहीं सुनी, उसकी जिद थी अमेरिका जाने की। नम आंखों से सबने उसे विदा किया। भास्कर की आंखें भी नम थी, परंतु.. मन में खुशी भी थी कि वह अमेरिका जा रहा है, सबसे दूर। भास्कर को विदा करके तीनों गाड़ी में बैठे घर जाने के लिए, सभी चुप थे। और.. नंदिनी का मन अतीत की यादों में खो गया था….!!

जब नंदिनी के पति आनंदन का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटाकर घर लाया गया था, तब उसे देखकर वह बेहोश हो गई थी। जब उसे होश आया तो देखा इसके चारों ओर बहुत सारे लोग बैठे हुए थे। सास ससुर भी थे और दोनों की आंखों से अश्रु धार जैसे रुकने का नाम नहीं ले रही थी। अपने इकलौते बेटे को खोने का दर्द सह भी नहीं पा रहे थे और किसी को कह भी नहीं पा रहे थे दोनों। मिस्टर गणेशन रोते हुए, अपनी पत्नी, बहू और एक साल के भास्कर को संभालने में लगे हुए थे।
“बेटी.. नंदिनी, संभालो अपने आप को! भास्कर अभी छोटा है, रो रहा है उसे तुम्हारी जरूरत है, उठ कर उसे गोद में लो! तुम इस तरह टूट जाओगी तो हमारा क्या होगा, हमें कौन संभालेगा?”… मिस्टर गणेशन ने आंसू पोछते हुए अपनी बहू से कहा।
“ना.. बेटा ना। मत रो, मम्मी आ गई है ना!”.… बेटे को गले से लगाते हुए रोते-रोते नंदिनी ने कहा।

नंदिनी के पति आनंदन सेना में मेजर के पद पर पदस्थ थे और बॉर्डर पर तैनात थे। आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान शहीद हो गए थे। नंदिनी के ससुर मर्चेंट नेवी से रिटायर्ड है। भास्कर के आने के बाद तो जैसे घर में सदैव त्योहारों जैसा माहौल रहता था। आज वही घर उदासी में डूबा पड़ा था… मातम का माहौल था! ना कोई कुछ बोल रहा था और ना किसी को भूख थी! केवल भास्कर ही भूख से रोये जा रहा था। सन्नाटा और उदासी ऐसी पसरी हुई थी जैसे अमावस की रात में तमस फैली होती है।

6 महीने के पश्चात नंदिनी के ससुर मिस्टर गणेशन ने नंदिनी को एक फैसला सुनाते हुए कहा…” बेटा.. मुझसे तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता और भास्कर भी अभी बहुत छोटा है। मैंने एक लड़का देखा है, अच्छा लड़का है। मैं चाहता हूं कि तुम उससे शादी कर लो और अपनी गृहस्थी बसा लो।”
“यह कैसे संभव है पिताजी? आनंदन के गए हुए अभी एक साल भी नहीं गुजरा! मेरे दिल में उनकी यादें ऐसी बसी हुई है कि भुलाने में बहुत समय लग जाएगा। यूं कहिए कि भुलाना संभव ही नहीं है। मैं भास्कर के साथ अपनी जिंदगी गुजार लूंगी। उसकी परवरिश अच्छे से करूंगी। वह बड़ा हो जाएगा तो मेरे दुख भी कम हो जाएंगे। आप मेरे लिए इतनी चिंता मत करिए और फिर आप दोनों भी तो अकेले हो गए हैं। आप लोगों की देखभाल कौन करेगा? नहीं.. नहीं.. आप मना कर दीजिए, ऐसा संभव नहीं है।”… नंदिनी ने आंखों में आंसू लिए अपने ससुर जी से कहा।

ना चाहते हुए भी नंदिनी की शादी उसके ससुर जी ने प्रभाकरण से तय कर दी। मन में अशेष व्यथा लेकर नंदिनी ने शादी के लिए हां कर दी और एक दिन उसकी शादी हो गई।
“क्या कर रही हो बेटा? जल्दी से अपना सामान तैयार कर‌ लो जाने का समय हो रहा है।”.. ससुर जी ने आकर नंदिनी से कहा।
“सब तैयारी हो गई है पापा। बस.. भास्कर का बैग तैयार कर रही हूं।”.. नंदिनी ने धीरे से कहा।
“भास्कर का बैग? भास्कर कहां जा रहा है? भास्कर तो तुम्हारे साथ नहीं जाएगा, वह तो यहीं रहेगा हमारे साथ।”.. मिस्टर गणेशन ने कहा।
“पापा आप यह क्या कह रहे हैं? भास्कर के बिना मैं कैसे रहूंगी? और भास्कर मेरे बिना कैसे रहेगा? वह मात्र डेढ़ साल का बच्चा है। भास्कर मेरे साथ नहीं जाएगा यह बात तो आपने मुझे पहले नहीं बताई।”.. आश्चर्यचकित होते हुए नंदिनी ने कहा।
“पहले बता देता तो तुम शादी के लिए तैयारी नहीं होती। और फिर प्रभाकरण के साथ भी यही बात हुई थी कि शादी के बाद तुम भास्कर को लेकर नहीं जाओगी। तभी वह शादी के लिए तैयार हुआ। और शादी नहीं करती तो इतनी लम्बी जिंदगी कैसे काटती।”.. मिस्टर गणेशन ने जवाब दिया।
“पर यह तो मेरे साथ धोखा है.. पापा। आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था। मुझे ऐसे दुविधा में डाल कर, दुख देकर आपको क्या मिलेगा? जिंदगी तो मैं भास्कर के साथ भी काट लेती। पर भास्कर के बिना कैसे जिऊंगी।”… नंदिनी रोने लगी।

नंदिनी बीच बीच में भास्कर से मिलने आती और दिल में अनंत व्यथा का बोझ लेकर जाती। भास्कर बड़ा होने लगा। बड़ा होकर वह नंदिनी को दीदी कह कर बुलाने लगा। नंदिनी जब भी भास्कर को टोकती तो सास ससुर यही कह कर चुप करा देते कि..” वह तुम्हें दीदी कहकर ही बुलाएगा। मां कह कर बुलाने लग गया तो तुम्हारे साथ जाने की ज़िद करेगा और प्रभाकरण को यह पसंद नहीं है।”

अव्यक्त वेदना मन में लेकर, नंदिनी बहुत समय तक प्रभाकरण का साथ निभा नहीं सकी क्योंकि प्रभाकरण का व्यवहार नंदिनी के प्रति सम्मान जनक नहीं था। और एक दिन उसको छोड़ कर सास, ससुर के पास आ गई। पर.. भास्कर उसे दीदी कहकर ही बुलाता रहा और दादा, दादी को मां- पापा करके बुलाता था। क्योंकि दादा, दादी ने यही सिखाया था।

एक दिन भास्कर ने सरोजा तथा मिस्टर गणेशन को यह कहते सुन लिया था कि नंदिनी उसकी दीदी नहीं है, मां है। तथा जिसे वह मां पिताजी मान रहा था, वे उसके दादा-दादी हैं। भास्कर के मन को इतनी गहरी चोट लगी इस झूठ से कि वह सहन नहीं कर पाया। अब वह नंदिनी का सामना नहीं कर पा रहा था और ना ही उससे नजरें मिला पा रहा था। सरोजा, मिस्टर गणेशन और नंदिनी के लिए उसके मन में जो सम्मान था वह एक झटके में टूट कर बिखर गया। वह पागल सा हो गया। जोर जोर से रोने लगा और ईश्वर से कहने लगा..” हे ईश्वर मैंने ऐसा क्या किया? कौन सी गलती हुई मुझसे, जो मुझे इतनी बड़ी सजा दी तुमने? मैं तो छोटा बच्चा था, मेरा क्या दोष?”

जब यह घटना घटी उस समय भास्कर कॉलेज में बी. टेक. की पढ़ाई कर रहा था। इसके बाद उसने निर्णय लिया कि वह उनके साथ नहीं रहेगा, जिन लोगों ने एक बच्चे से इतना बड़ा झूठ कहा और उसकी भावना से खेला।

“दादा जी मैंने अमेरिका जाने का फैसला ले लिया है। और परीक्षा भी दे दी है जिसमें मैं उत्तीर्ण हो गया। मेरा सिलेक्शन हो गया है, एक बहुत अच्छी यूनिवर्सिटी में। वहीं जाकर मैं पीएचडी करूंगा। मुझे स्कॉलरशिप भी मिलेगी, जिससे मेरा सारा खर्चा निकल जाएगा। आपको कोई चिंता करने की जरूरत भी नहीं है।” भास्कर ने दृढ़ता से कहा बिना दादाजी से नजरे मिलाए।
“तुम मुझे दादाजी क्यों कह रहे हो? और अमेरिका जा रहे हो इसका फैसला खुद ही ने ले लिया, मुझे बताया भी नहीं”… मिस्टर गणेशन ने कहा।
“बस कीजिए दादाजी अब और मुझसे झूठ बर्दाश्त नहीं होगा। मैंने सब कुछ सुन लिया है, आपको और दादी जी को बात करते हुए। एक मासूम बच्चे के साथ आपने इतना बड़ा अन्याय कैसे किया। मुझे मेरे मां के प्यार से वंचित किया। हमेशा मैं उनको दीदी कहकर बुलाया करता था, जो मेरी मां है। यह तो हम दोनों के साथ ही बहुत बड़ा अन्याय हैं।”… भास्कर की आवाज में सख्ती थी।
“पर मैं मजबूर था बेटा। मैं झूठ नहीं बोलता तो क्या करता, तुम्हारी मां की शादी करने के लिए मुझे झूठ बोलना पड़ा।”… मिस्टर गणेशन की आवाज में नरमी थी।
“झूठ बोल रहे हैं आप। मैंने मां से बात की है, वह शादी करना नहीं चाहती थी। आपने ही उनके साथ जबरदस्ती की है, अपने स्वार्थ के लिए। मां भी मजबूर थी। कहीं जा नहीं सकती थी, इसलिए आपकी बात माननी पड़ी उनको।आप चाहते थे कि मैं आपके बुढ़ापे का सहारा बनुं। अगर आप सच बोलते तो भी मैं आपको छोड़कर नहीं जाता। आपके बुढ़ापे का सहारा बनता। अभी भी मैं आपको छोड़कर नहीं जा रहा हूं हमेशा के लिए। जब भी आपको जरूरत पड़ेगी, मैं लौट कर आऊंगा। पर.. कुछ साल मैं आप सब से दूर रहना चाहता हूं, ताकि मैं अपने आपको समझा सकूं कि जो भी हुआ वह समय के हाथ में था। किसी का दोष नहीं है, और मुझे इसके लिए समय चाहिए।”… कहकर भास्कर बाहर निकल गया और अपने कमरे में जाकर जाने की तैयारी में जुट गया।

गाड़ी घर के सामने रुकी तो नंदिनी अतीत से वर्तमान में आ गई। उसने गाड़ी से उतरकर सीधे अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लिया और फफक फफक कर रो पड़ी। उसकी व्यथा ना तो भास्कर ने समझी और ना ही सास, ससुर ने। अपने आप को बहुत ही असहाय सी महसूस करने लगी वह। एक विवश मां की विवश ममता, जिसे अपने बेटे पर लुटानी थी, वह ममता हमेशा तड़पती रही। नंदिनी ने रोते-रोते मन ही मन कहा..” भास्कर बेटा अपनी मां को क्षमा कर देना, वह तो विवशता में जकड़ी हुई थी। सदैव मेरी ममता तड़पती रही, तुम्हें पास पाने के लिए। पर.. मैं तुम पर ममता लूटा नहीं पाई। तुम्हें अपनी ममता से सदैव दूर रखा। तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय हुआ है बेटा..!”
“नंदिनी, बेटा दरवाजा खोलो, नंदिनी!”.. मिस्टर गणेशन ने आवाज लगाई।
नंदिनी ने तुरंत आंसू पोंछ कर दरवाजा खोला और पूछा..”हां पापा क्या बात है, कुछ चाहिए क्या?
नंदिनी की आंखें सूजी हुई देख कर, मिस्टर गणेश्वर समझ गए थे कि नंदिनी रो रही थी। उन्होंने धीरे से कहा..” बेटा हो सके तो मुझे क्षमा कर देना! मैंने तुम्हारे और भास्कर के साथ बड़ा अन्याय किया है। आनंदन के जाने के बाद, मैं यह सोच कर डर गया था कि अब अकेला हो गया हूं। बुढ़ापे में मेरी देखभाल कौन करेगा? पर.. मैं अपने स्वार्थ में अंधा होकर यह भूल गया था कि भास्कर और तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है।”
“पापा, मैं बीती बातों को भुलाकर अपने रिश्तों की कड़ियां जो बिखरी हुई है, उसे फिर से जोड़ना चाहती हूं। भास्कर के मन में जो व्यथा है, जो गलत धारणा है, उसे दूर करना चाहती हूं। इसके लिए मुझे भी समय चाहिए।”.. नंदिनी की बातों में दृढ़ता थी।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

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*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]