ग़ज़ल – निर्मल काया
निर्मल मन रख निर्मल काया।
जिसने जैसा सोचा पाया।
सब कह डाला शब्द सरल रख,
मन में मेरे जो भी आया।
लाख हसीं हैं यूँ दुनिया में,
मन को मेरे तू ही भाया।
मान अमानत का रक्खा है,
हक़दारों तक हक़ पहुँचाया।
छोड़ी हरगिज़ राह न हक़ की,
शैतां ने अजहद बहकाया।
— हमीद कानपुरी