धराशायी
तारिका और तारकेश्वर आज फिर एक हो गए थे और अभी-अभी जश्न मनाकर वापिस आए थे. तारकेश्वर अभी भी तारिका के निर्मल सौंदर्य को मुग्ध-सा निहार रहा था, ठीक वैसे ही जैसे बहुत साल पहले जब उसे पहली बार एक कला प्रदर्शनी में देखा था.
”आपको यह चित्र पसंद आया है?” बहुत देर से एक चित्र को निहारते हुए तारिका ने तारकेश्वर से कहा था.
”हां जी, बहुत खूबसूरत है यह चित्र. आपका परिचय!”
”इस चित्र की चित्रकार.” तारिका ने तनिक लज्जाते हुए कहा था. ”क्या कहता है यह चित्र!” इस बार तारिका नहीं, एक चित्रकार का प्रश्न था.
”धवल साड़ी में सजी खूबसूरत यह आधुनिका हाथ की लकीरों की मोहताज नहीं है.” तारकेश्वर ने हाथ पर सुसज्जित धवल चित्र वाली आधुनिका को निहारते नहीं, तारिका की झील-सी गहरी आंखों की गहराई में उतरते हुए कहा था.
आंखों ने आंखों में नेह-स्नेह, प्रेम-प्यार देखा था. यह नेह-स्नेह, प्रेम-प्यार पल्लवित होता चला गया. दोनों एक दूसरे में समा गए थे.
”लेकिन बीच में क्या हो गया था?” तारकेश्वर फिर अतीत में खो गया था.
नेह-स्नेह का स्थान अहं ने ले लिया था और प्रेम-प्यार ने वहम का.
”धवल साड़ी में सजी वह खूबसूरत आधुनिका अब उसे अपने हाथ की लकीरों को नजर अंदाज करती हुई खुदगर्ज नारी लग रही थी, जिसे अपनी कला की कामयाबी ने मगरूरी के सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था.” ऐसा उसे लगता था. नौबत तलाक की हद तक आ पहुंची थी. कला में डूबी तारिका को यह सब कुछ पता नहीं था.
तभी तारकेश्वर के बहुत दिनों से रुके प्रमोशन का टेलीफोन कॉल आया, जो तारिका ने रिसीव किया था. तारकेश्वर के सैर से आते ही वह उमंग से लगभग नाचते हुए बोली, ”जानू, आज मैं बहुत खुश हूं, बहुत खुश, तुम्हारा प्रमोशन हो गया. अभी कॉलरा साहब का फोन आया था.” खुश तो तारकेश्वर भी था, फिर भी उसने सवाल कर ही लिया-
”प्रमोशन मेरा हुआ है, नाच तुम रही हो?”
”तो क्या जानू! कामयाबी तो कामयाबी है, चाहे मेरी हो या तुम्हारी! हम एक ही तो हैं.”
तारकेश्वर का अहम और वहम धराशायी हो गया था.
अहम और वहम मनुष्य को किसी काम का नहीं रहने देते. इनके धराशायी होते ही घर-परिवार-मित्रता में खुशियों का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, प्रसन्नता नाचने लगती है.