कविता

नैसर्गिक सुंदरता

ऊंचे ऊंचे पेड़ों से सजे घने वन,
‘नैसर्गिक सुंदरता’ को
परिभाषित करता वन।
श्यामल परिधान में धरा सुंदरी
रंग बिरंगे फूलों से सज कर,
इतराती थी अपनी सुंदरता पर।
गगनचुंबी साल के पेड़ों की कतार
ऐसा प्रतीत होता मानो,
सुंदरियां सज धज कर एक ही लय में
नृत्य करती हुई, कोई मधुर गीत गाकर,
लुभा रही हो अपने प्रेमी अंबर को।
कई तरह के फलों से लदे पेड़
हवा में हिलोरे लेते हुए ऐसे लगते थे जैसे
परिंदो तथा गिलहरियों के भोजन जुटाने में,
अत्यधिक आनंद का अनुभव कर रहे हो।
रंग बिरंगे पुष्प खिलकर
चारों दिशा ऐसे महकाया करते थे,
जैसे कोई अभिसारिका पुष्प हार पहन कर
अपने प्रियतम से मिलने के लिए आतुर है।
विभिन्न वन्य पशु- पक्षियों तथा सर्पों का
नैसर्गिक शरणस्थल था वह वन।
आते जाते पथिक थक हारकर
पेड़ों के छाव तले क्षण भर सुस्ता कर
फिर चल पड़ते अपने गंतव्य की ओर।
वनों के पगों को पखारती हुई
कल कल बहती निर्झर नदी
निश्छल, निष्कपट पोषण करती थी,
आह्लदित होकर उस सुंदर वन को।
अस्ताचल होते सूर्य किरणें
ऊंचे ऊंचे पेड़ों से टकराकर
ऐसे बिखरती थी जैसे स्वर्ग से
अप्सराएं उतर आई हो धरती पर।
सांझ की बहती शीतल बयार
रवि किरणों से तपते,उष्ण तन मन को
शांति का प्रलेप लगा जाती थी।
पड़ते ही मानव के कदम,
अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु,
कटने लगे ऊंचे ऊंचे पेड़।
फिर कट गए छोटे पेड़ और .झाड़ियां।
टूटने लगे पक्षियों के घोंसलें,
विलुप्त होने लगे फलों से लदे पेड़,
फूलों से लदी झाड़ियां।
कम होने लगी पक्षियों का चहचहाना,
जाने कहां खो गई कोयल की मीठी कूक,
अब नहीं दृष्टिगोचर होते,
रंग बिरंगे पंख फैलाकर नृत्य करते मोर,
प्रियतमा को लुभाने के लिए।
हिरणों के झुंड विचरण करते थे
होकर निडर पूर्ण स्वतंत्रता से।
वे भी विलुप्त हो गए
मानव के क्रूरता से क्षुब्ध होकर।
श्वेत बर्फ के गोले जैसे
खरगोशों का इधर से उधर दौड़ना।
सर्पों का निडर इधर उधर रेंगना
और मिलकर प्रेम नित्य करना।
जाने कहां खो गई वह
नैसर्गिक सुंदरता की बानगी।
अब रह गया है केवल एक खुला मैदान
जहां पर बन गए छोटे छोटे घर,
जहां कभी कभी उगा करती है फसलें।
और शीतल हवा ने अपना चरित्र बदलकर
धर ली है उष्णता का रूप।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]