शिक्षक, बच्चे और अभिव्यक्ति के अवसर
मेरा कोई अपना एक स्कूल नहीं हैं जहां मैं नियमित जाकर काम कर सकूं। क्योंकि मैं बीआरसी में सह-समन्वयक हूं। लेकिन यह मेरे लिए सीखने-सिखाने के एक नये अवसर के रूप में हैं क्योंकि इसी कारण मुझे ब्लाॅक के अन्य स्कूलों में जाने और बच्चों से संवाद करने का अवसर मिलता है जो मुझे एक शिक्षक के रूप में प्रत्येक दिन बेहतर करता है। नये माहौल, नई परिस्थितियों में नये बच्चे और अभिभावकों से मिलने और बातचीत करने के कारण उपजे सन्दर्भ मेरे शिक्षकीय अनुभव को समृद्ध करते हैं। अपने इन प्रयासों को कुछ उदाहरणों के माध्यम से रखने की कोशिश करता हूं। एक बार मैं ब्लाॅक के एक प्राथमिक विद्यालय में अनायास पहुँच गया था। यहाँ दो साल पहले भी जाना हुआ था। तो दो चित्र मेरे सामने थे। पहला, दो साल पूर्व का बिना पुता काई लगा भवन, जगह-जगह पान की पीक, इधर-उधर बिखरे कागज, हँसी उड़ाता और बच्चों को दूर भगाता हुआ विद्यालय का चित्र और अब पुताई एवं भित्ति चित्रों से दमकता भवन, फुलवारी, बैंगन, टमाटर, मिर्च, पालक, धनिया की महक बिखराती क्यारियाँ, सुसज्जित अभिलेख-पंजिकाएँ, अपने आप पढ़ते हुए बच्चे और साफ-सुथरा प्रांगण, कुल मिलाकर बच्चों को अपनी ओर बुलाता-खींचता विद्यालय। चारदीवारी की कमी को बाँस की खपच्चियों की बाड़ लगा कर दूर किया गया था। विद्यालय के प्रति शिक्षकों में अपनापन प्रकट हो रहा था। पहुँचने पर मैंने देखा कि शिक्षक कक्षाओं में पढ़ा रहे हैं, ऐसा मैं सह-समन्वयक रहते हुए किसी प्राथमिक विद्यालय में पहली बार देख रहा था। मैं लगभग 10 मिनट खड़ा रहा लेकिन किसी शिक्षक का ध्यान मेरी ओर नहीं गया। मैदान में कक्षा 4 और 5 के बच्चे अलग-अलग समूहों में बिना शिक्षक के सम्बंधित बेला की पुस्तकें पढ़ रहे थे। बाद में पता चला कि तीन शिक्षकों में से एक आज छुट्टी पर हैं, दो ही उपस्थित हैं। पुताई के बाद दीवार लेखन का काम चल रहा था। शिक्षक सभी कक्षाओं में काम दे कर बारी-बारी से जाकर काम देख रहे थे और सभी कक्षाओं के बच्चों पर नजर बनाये हुए थे। मैंने बच्चों के पास जाकर देखा। बच्चे हिन्दी पढ़ पा रहे थे, अच्छा लगा। थोड़े-थोड़े समय के लिए कक्षाओं में गया। बच्चों से कुछ बात करनी चाही पर बच्चे मेरी किसी बात का उत्तर नहीं दे रहे थे। शिक्षकों को कुछ आवश्यक सुझाव देकर मैं चला आया। एक सप्ताह बाद एक अन्य स्कूल में योजनानुसार जाना हुआ। यह एक जूनियर स्तर का विद्यालय था और छह शिक्षक कार्यरत थे। प्राकृतिक परिवेश बहुत अच्छा। आंशिक क्षतिग्रस्त लेकिन बढ़िया चारदीवारी। लेकिन कहीं कोई फूल-पौधा नहीं। समूह में बातचीत करते शिक्षक गण। स्वप्नहीन आँखें, मरी हुई इच्छाएँ, उत्साह रहित मन। न कोई योजना न कोई विचार। केवल समय काटना। बच्चे भगवान भरोसे पढ़ते हुए। बच्चों से बातें की, लगभग अबोले रहे पर थोड़ी देर बाद कुछ बच्चे बात करने लगे।
उन दोनों विद्यालयों में एक बात सामान्य थी और वह थी बच्चों का न बोल पाना। मुझे लगा कि एक शिक्षक के रूप में शिक्षक अपनी भूमिका को नहीं समझ पाया है। भौतिक परिवेश ठीक कर लेना, संसाधन जुटा लेना, साज-सज्जा कर देना, पाठ्यक्रम पूरा कर देना और बच्चों का पुस्तकें पढ़ पा सकना शिक्षण नहीं हैं। बाल संसद, मीना मंच या कुछ समितियाँ बना देना भी नहीं। मुझे लगता है एक शिक्षक को प्रत्येक बच्चे को जानना समझना होगा, उसे पुस्तक पढ़ने के साथ-साथ प्रत्येक बच्चे को पढ़ना होगा। उसकी क्षमता पहचान कर उस गुण को विकसित करने के मौके खोजने होंगे। सबसे जरूरी बात कि बच्चे अपनी बात कहना सीख पाये। दूसरे की बात सुनकर यथोचित जवाब दे सके। तर्क, अनुमान, सम्बंन्ध, अवलोकन के आधार पर वस्तुओं को जान-समझ सके, कल्पना कर पायें। और यह तभी सम्भव होगा जब शिक्षक में ये सब गुण होंगे और वह कक्षा में इन सबके लिए समय और जगह बना पाये। क्योंकि बच्चा देखकर सीखता है, स्वयं करके सीखता है। उसे उसके मन का करने का अवसर देना होगा। इस आधार पर मैंने एक योजना बनाई और उन स्कूलों के साथ-साथ अन्य स्कूलों में भी प्रयोग किया जिसके परिणाम खुशी देने वाले सिद्ध हुए। इसके लिए बड़े और छोटे समूहों में कुछ गतिविधियाँ नियमित की गईं, जैसे कि प्रार्थना स्थल पर किसी एक परिवेशीय बिन्दु पर बच्चे का अपना विचार रखवाना। कक्षा-कक्ष में स्वयं एवं किसी दूसरे बच्चे का परिचय देना। भोजन के समय खाना परोसने से पूर्व एक गीत का सामूहिक गायन। विद्यालय के लिए योजना होना, (बच्चे और शिक्षक मिलकर बनायें)। बच्चों से विषय सन्दर्भित बातचीत करना जिसमें उनके परिवेश से उपजे पूर्वज्ञान और समझ को शामिल किया जा रहा हो। बच्चों को महत्व देते हुए उनकेे अन्य अनुभवों को सुनना एवं लिखने को प्रोत्साहित करना। विश्वास है ऐसा करते हुए मैं बच्चों के लिए उनके सपनों का विद्यालय बना सकने की दिशा में कुछ कदम बढ़ा होऊंगा।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
आपका लेख काफ़ी सराहनीय है। मैं भी एक अध्यापिका हूँ यहाँ ग़रीब बच्चों को पढ़ाती हूँ और अपनी तरफ़ से यही कोशिश करती हूँ कि मैं उनके मन को पढ़ सकूँ। एक हद तक सफल भी हुई हूँ। विधालय का तो पता नहीं कब सपनों का बनेगा? पर हम तो दे ही रहे हैं मुझे तो सकारात्मक परिणाम मिल रहा है।