धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विश्व का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट

हमारा देश भारत अपने आप में बसी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत के लिए दुनियाभर में विख्यात है। हमारे देश में कई ऐसे मंदिर हैं जिनकी शोभा देखने के लिए देश और विदेश से लाखों दर्शनार्थी और श्रद्धालु आते हैं और यहाँ मंदिरों की शोभा देख मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं। लेकिन फिर भी एक बात यह है कि जो शायद ही लोग जानते होंगे कि विश्व का सबसे बड़ा मंदिर भारत में मौजूद नहीं है, क्योंकि यह मंदिर है अंकोरवाट मंदिर जो कंबोडिया में स्थित है। जिसे भगवान विष्णु का सबसे बड़ा मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर में साक्षातभगवान विष्णु शोभायमान हैं। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में इसका नाम दर्ज है।
इस मंदिर का पूरा नाम यशोधरपुर था। फ्रांस से आजादी मिलने के बाद यही मंदिर कंबोडिया की पहचान बन गया। इस मंदिर की तस्वीर कंबोडिया के राष्ट्रीय ध्वज पर भी है। इतिहास की बात करे तो 11 वीं शताब्दी में यंहा सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय का शासन था।
सूर्यवर्मन ने ही इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मिकांक नदी के किनारे बसे इस मंदिर को टाइम मैगजीन ने दुनिया के 5 आश्चर्यजनक चीजों में शुमार किया था। इस मंदिर को 1992 में यूनेस्को ने विश्व विरासत में भी शामिल किया है।
इस मंदिर को देखने और विष्णु भगवान के दर्शन करने के लिए हर साल लाखों भक्त भारत समेत कई देशों से यहाँ पहुँचते हैं।
बताया जाता है कि इसे बनाने के लिए पचास से एक करोड़ रेत के पत्थर का इस्तेमाल किया गया है।प्रत्येक पत्थर का वजन डेढ़ टन है। सबसे खास बात है की इस मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत की कहानियां भी लिखी हुई हैं और साथ ही देवताओं और असुरों के अमृत मंथन का भी उल्लेख किया गया है। कंबोडिया में बना प्रचीन अंकोरवाट एक विशाल हिंदू मंदिर है। जो भगवान विष्णु को समर्पित है। यह दुनिया का सबसे बड़ा पूजा-स्थल है और दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल भी है। कंबोडिया के बेहद मशहूर और पुरातात्विक महत्व वाले बेहद प्राचीन मंदिर अंकोरवाट का भ्रमण करने विदेशों से आए पर्यटकों में पिछले वर्ष सर्वाधिक संख्या चीनी पर्यटकों की रही। लगभग 667,285 चीनी पर्यटक 2016 में अंकोरवाट पहुंचे थे।
कंबोडिया स्थित अंगकोर वाट के विषय में 13वीं शताब्दी में एक चीनी यात्री का कहना था कि इस मंदिर का निर्माण महज एक ही रात में किसी अलौकिक सत्ता के हाथ से हुआ था। यह सब तो इस महल रूपी मंदिर से जुड़ी लोक कहानियां हैं।असल में इस मंदिर का इतिहास बौद्ध और हिन्दू दोनों ही धर्मों से बहुत निकटता से जुड़ा है। अंगकोर वाट नामक विशाल मंदिर का संबंध पौराणिक समय के कंबोदेश और आज के कंबोडिया से है।यह मंदिर मौलिक रूप से हिन्दू धर्म से जुड़ा पवित्र स्थल है। जिसे बाद में बौद्ध रूप दे दिया गया।
इतिहास पर नजर डाली जाए तो करीब 27 शासकों ने कंबोदेश पर राज किया।जिनमें से कुछ शासक हिन्दू और कुछ बौद्ध थे। शायद यही वजह है कि कंबोडिया में हिन्दू और बौद्ध दोनों से ही जुड़ी मूर्तियां मिलती हैं।कंबोडिया में बौद्ध अनुयायियों की संख्या अत्याधिक है इसलिए जगह-जगह भगवान बुद्ध की प्रतिमा मिल जाती है। लेकिन अंकोरवाट के अलावा शायद ही वहां कोई ऐसा स्थान हो जहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की मूर्तियां एक साथ हों। इस मंदिर की सबसे बड़ी खास बात यह भी है कि यह विश्व का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर भी है। इसकी दीवारें रामायण और महाभारत जैसे विस्तृत और पवित्र धर्मग्रंथों से जुड़ी कहानियां कहती है। अंकोरवाट कम्बोडिया, जिसे पुराने लेखों में कम्बुज भी कहा गया है। यहाँ भारत के प्राचीन और शानदार स्मारक हैं। यहाँ संसार-प्रसिद्ध विशाल विष्णुमंदिर है। अंकोरवाट मन्दिर अंकोरयोम नामक नगर में स्थित है।जिसे प्राचीन काल में यशोधरपुर कहा जाता था। अंकोरवाट जयवर्मा द्वितीय के शासनकाल (1181-1205 ई.) में कम्बोडिया की राजधानी था। यह अपने समय में संसार के महान नगरों में गिना जाता था और इसका विशाल भव्य मन्दिर अंकोरवाट के नाम से आज भी विख्यात है। अंकोरवाट का निर्माण कम्बुज के राजा सूर्यवर्मा द्वितीय (1049-66 ई.) ने कराया था और यह मन्दिर विष्णु को समर्पित है। इस देवालय के चारों ओर एक गहरी खाई है जिसकी लंबाई ढाई मील और चौड़ाई 650 फुट है। खाई पर पश्चिम की ओर एक पत्थर का पुल है। मंदिर के पश्चिमी द्वार के समीप से पहली वीथि तक बना हुआ मार्ग 1560 फुट लंबा है और भूमितल से सात फुट ऊंचा है। पहली वीथि पूर्व से पश्चिम 800 फुट और उत्तर से दक्षिण 675 फुट लंबी है। मंदिर के मध्यवर्ती शिखर की ऊंचाई भूमितल से 210 फुट से भी अधिक है। अंकोरवाट की भव्यता तो उल्लेखनीय है ही, इसके शिल्प की सूक्ष्म विदग्धता, नक्शे की सममिति यथार्थ अनुपात तथा सुंदर अलंकृत मूर्तिकारी भी उत्कृष्ट कला की दृष्टि से कम प्रशंसनीय नहीं है।
यह मंदिर ईश्वर ने इस संसार में इंसान को अच्छे कर्म करने के लिए भेजा है। लेकिन मनुष्य इस दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों कर्म करता है।जैसा कोई मनुष्य कर्म करता है नियति भी उसके साथ ऐसा ही करती है।जात-पात, ऊंच-नीच,अमीर-गरीब सब इसी दुनिया में आकर मिला है।इस संसार में कई धर्म है, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिख, जैन, बौद्ध, हिन्दू धर्म एक धर्म है। जिसमें देवी देवताओं को बहुत अधिक मान्यता दी जाती है।इस धर्मं की शुरुआत भारत से होकर विश्व के कई देशों तक हिन्दू धर्म फैला है। हिन्दू धर्म के सबसे अधिक अनुयायी भारत में हैं। हिन्दू धर्म में मंदिर को एक विशेष महत्व है। मंदिर हिन्दू धर्म में पूजा का पवित्र स्थल होता है। जहाँ पर देवी देवता विराजमान होते हैं। अंकोरवाट मंदिर की ख़ास बात यह है कि यह मंदिर भारत में नही बल्कि कम्बोडिया में है। इस मंदिर का इतिहास बहुत ही दिलचस्प है।इस मंदिर का नाता अलौकिक शक्तियों से रहा है।
अंकोरवाट कम्बोडिया में दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू धार्मिक स्मारक है। यह मंदिर 402 एकड़ में फैला है। यह मूल रूप से खमेर साम्राज्य के लिए भगवान विष्णु के एक हिन्दू मंदिर के रूप में बनाया गया था। जो धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के अंत में बौध मंदिर में परिवर्तित हो गया था। यह कम्बोडिया के अंकोर में है। जिसका पुराना नाम ‘यशोधरपुर’ था! इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिव मंदिरों का निर्माण किया था। यह मिकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है।राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को 1983 से कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है। इसकी दीवारों पर भारतीय धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है। इन प्रसंगों में अप्सराएं बहुत सुंदर चित्रित की गई हैं।असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है। विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है। पर्यटक यहाँ केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं। सनातनी लोग इसे पवित्र तीर्थस्थान मानते है।
अंकोरथोम और अंकोरवाट प्राचीन कम्बूज की राजधानी और उसके मंदिरों के भग्नावशेष का विस्तार।अंकोरथोम और अंकोरवाट सुदूर पूर्व के हिन्दचीन में प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेष हैं। हिंदचीन, सुवर्ण द्वीप, वनद्वीप, मलाया आदि में भारतीयों ने कालांतर में अनेक राज्यों की स्थापना की वर्तमान कंबोडिया के उत्तरी भाग में स्थित कंबुज’ शब्द से व्यक्त होता है। कुछ विद्वान भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर बसने वाले कंबोजों का संबंध भी इस प्राचीन भारतीय उपनिवेश से बताते हैं।अनुश्रुति के अनुसार इस राज्य का संस्थापक कौंडिन्य ब्राह्मण था।जिसका नाम वहाँ के एक संस्कृत अभिलेख में मिला है।नवीं शताब्दी में जयवर्मा तृतीय कंबुज का राजा हुआ और उसी ने लगभग 830 ईसवी में अंग्कोरथोम (थोम का अर्थ राजधानी है) नामक अपनी राजधानी की नींव डाली। राजधानी प्राय: 40 वर्षों तक बनती रही और 900 ई. के लगभग तैयार हुई। उसके निर्माण के संबंध में कंबुज के साहित्य में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है।
आज का अंकोरथोम के चारों ओर 330 फुट चौड़ी खाई है जो सदा जल से भरी रहती थी।नगर और खाई के बीच एक विशाल वर्गाकार प्राचीर नगर की रक्षा करती है। प्राचीर में अनेक भव्य और विशाल महाद्वार बने हैं। महाद्वारों के ऊँचे शिखरों को त्रिशीर्ष दिग्गज अपने मस्तक पर उठाए खड़े हैं।विभिन्न द्वारों से पाँच विभिन्न राजपथ नगर के मध्य तक पहुँचते हैं।विभिन्न आकृतियों वाले सरोवरों के खंडहर आज अपनी जीर्णावस्था में भी निर्माणकर्ता की प्रशस्ति गाते हैं। नगर के ठीक बीचोबीच शिव का एक विशाल मंदिर है। जिसके तीन भाग हैं! प्रत्येक भाग में एक ऊँचा शिखर है। मध्य शिखर की ऊँचाई लगभग 150 फीट है। इस ऊँचे शिखरों के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे शिखर बने हैं जिनकी संख्या लगभग 50 के आसपास हैं। इन शिखरों के चारों ओर समाधिस्थ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मंदिर की विशालता और निर्माण कला आश्चर्यजनक है।उसकी दीवारों को पशु, पक्षी, पुष्प एवं नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों को उकेरा गया है।यह मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से विश्व की एक आश्चर्यजनक वस्तु है और भारत के प्राचीन पौराणिक मंदिर के अवशेषों में तो एकाकी है। अंकोरथोम के मंदिर और भवन, उसके प्राचीन राजपथ और सरोवर सभी उस नगर की समृद्धि के सूचक हैं। 12 वीं शताब्दी के सूर्यवर्मन द्वितीय ने अंग्कोरथोम में विष्णु का एक विशाल मंदिर बनवाया। इस मंदिर की रक्षा भी एक चतुर्दिक खाई करती है जिसकी चौड़ाई लगभग 700 फुट है। दूर से यह खाई झील के समान दिखती है। मंदिर के पश्चिम की ओर इस खाई को पार करने के लिए एक पुल बना हुआ है। पुल के पार मंदिर में प्रवेश के लिए एक विशाल द्वार निर्मित है जो लगभग 1000 फुट चौड़ा है। मंदिर बहुत विशाल है। इसकी दीवारों पर समस्त रामायण मूर्तियों में अंकित है।इस मंदिर को देखने से ज्ञात होता है कि विदेशों में जाकर भी प्रवासी कलाकारों ने भारतीय कला को जीवित रखा था। इनसे प्रकट है कि अंकोरथोम जिस कंबुज देश की राजधानी था। उसमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि देवताओं की पूजा प्रचलित थी। इन मंदिरों के निर्माण में जिस कला का अनुकरण हुआ है वह भारतीय गुप्त कला से प्रभावित जान पड़ती है। इनमें भारतीय सांस्कतिक परंपरा जीवित की गई थी। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यशोधरपुर (पूर्वनाम) का संस्थापक नरेश यशोवर्मा अर्जुन और भीम जैसा वीर, सुश्रुत जैसा विद्वान् तथा शिल्प, भाषा, लिपि एवं नृत्य कला में पारंगत था। उसने अंकोरथोम और अंकोरवाट के अतिरिक्त कंबुज के अनेक राज्य स्थानों में भी आश्रम स्थापित किए जहाँ रामायण, महाभारत, पुराण तथा अन्य भारतीय ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन होता था। अंग्कोरवाट के हिंदू मंदिरों पर बाद में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा और कालांतर में उनमें बौद्ध भिक्षुओं ने निवास भी किया। अंकोरथोम और अंकोरवाट में 20 वीं सदी के आरंभ में जो पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं उनसे खमेरों के धार्मिक विश्वासों, कलाकृतियों और भारतीय परंपराओं की प्रवासगत परिस्थितियों पर बहुत प्रकाश पड़ा है।
खमेर शास्त्रीय शैली से प्रभावित स्थापत्य वाले इस मंदिर का निर्माण कार्य सूर्यवर्मन द्वितीय ने प्रारम्भ किया परन्तु वे इसे पूर्ण नहीं कर सके। मंदिर का कार्य उनके भानजे एवं उत्तराधिकारी धरणीन्द्रवर्मन के शासनकाल में सम्पूर्ण हुआ। मिश्र एवं मेक्सिको के स्टेप पिरामिडों की तरह यह सीढ़ी पर उठता गया है।इसका मूल शिखर लगभग 64 मीटर ऊँचा है। इसके अतिरिक्त अन्य सभी आठों शिखर 54 मीटर उँचे हैं।मंदिर साढ़े तीन किलोमीटर लम्बी पत्थर की दिवार से घिरा हुआ था, उसके बाहर 30 मीटर खुली भूमि और फिर बाहर 190 मीटर चौडी खाई है। विद्वानों के अनुसार यह चोल वंश के मन्दिरों से मिलता जुलता है। दक्षिण पश्चिम में स्थित ग्रन्थालय के साथ ही इस मंदिर में तीन वीथियाँ हैं। जिसमें अन्दर वाली अधिक ऊंचाई पर हैं। निर्माण के कुछ ही वर्ष पश्चात चम्पा राज्य ने इस नगर को लूटा। उसके उपरान्त राजा जयवर्मन-७ ने नगर को कुछ किलोमीटर उत्तर में पुनर्स्थापित किया। 14वीं या 15वीं शताब्दी में थेरवाद बौद्ध लोगों ने इसे अपने नियन्त्रण में ले लिया।
मंदिर के गलियारों में तत्कालीन सम्राट, बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत हरिवंश पुराण तथा रामायण से संबद्ध अनेक शिला चित्र हैं। यहाँ के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है। इस मंदिर का जुडाव भारतीय संस्कृति से है इसलिए कहा जाता है कि यह मंदिर एक ही दिन में अलौकिक शक्तियों के माध्यम से बना था लेकिन इसी के साथ यह भी कहा जाता है कि राजा जय वर्मन ने इस देश की राजधानी अमर होने के लिए इस मंदिर का निर्माण किया था। जहाँ पर उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो की मूर्ति एक साथ रखकर पूजा शुरू की थी। भारत के राजनैतिक और धार्मिक अवधारणा के आधार पर ही अंकोरवाट नगरी का निर्माण हुआ था। इसके अलावा अंकोरवाट मंदिर के निर्माण के पीछे इसे बनवाने वाले राजा का एक खास मकसद भी जुड़ा हुआ था।
दरअसल राजा सूर्यवर्मन हिन्दू देवी-देवताओं से नजदीकी बढ़ाकर अमर बनना चाहता था। इसलिए उसने अपने लिए एक विशिष्ट पूजा स्थल बनवाया जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों की ही पूजा होती थी। आज यही मंदिर अंगकोर वाट के नाम से जाना जाता है। लगभग 6 शताब्दियों तक अंकोरवाट राजधानी के रूप में पहचानी जाती रही। इसी दौरान अंकोरवाट वाट की संरचना और बनावट को कई प्रकार के परिवर्तनों से भी गुजरना पड़ा। मूलत: यह मंदिर शिव को समर्पित था, उसके बाद यहां भगवान विष्णु की पूजा होने लगी। लेकिन जब बौद्ध धर्मावलंबियों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य कायम किया तब से लेकर अब तक यहां बौद्ध धर्म की महायान शाखा के देवता अवलोकितेश्वर की पूजा होती है।
13वीं शताब्दी के आखिर तक आते-आते अंकोरवाट की संरचना को संवारने का काम भी शिथिल पड़ता गया। और साथ ही थेरवाद बौद्ध धर्म के प्रभाव के अंतर्गत एक संयमित धर्म का उदय होने लगा। इसी दौरान अंकोरवाट और खमेर साम्राज्य पर आक्रमण बढ़ने लगे। 16वीं शताब्दी के आगमन से पहले ही अंकोरवाट का सुनहरा अध्याय लगभग समाप्त हो गया और अन्य भी बहुत से प्राचीन मंदिर खंडहर में तब्दील हो गए।
15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी ईसवी तक थेरवाद के बौद्ध साधुओं ने अंकोरवाट मंदिर की देखभाल की, जिसके परिणामस्वरूप कई आक्रमण होने के बावजूद इस मंदिर को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा।
बाद की सदियों में अंकोरवाट गुमनामी के अंधेरे में लगभग खो सा गया था। 19वीं शताब्दी के मध्य में एक फ्रांसीसी अंवेषक और प्रकृति विज्ञानी हेनरी महोत ने अंकोरवाट की गुमशुदा नगरी को फिर से ढूंढ़ निकाला। वर्ष 1986 से लेकर वर्ष 1993 तक भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा संभाला था।
आज के समय में अंगकोर वाट दक्षिण एशिया के प्रख्यात और अत्याधिक प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में से एक है।

— निशा नंदिनी
तिनसुकिया ,असम

*डॉ. निशा नंदिनी भारतीय

13 सितंबर 1962 को रामपुर उत्तर प्रदेश जन्मी,डॉ.निशा गुप्ता (साहित्यिक नाम डॉ.निशा नंदिनी भारतीय)वरिष्ठ साहित्यकार हैं। माता-पिता स्वर्गीय बैजनाथ गुप्ता व राधा देवी गुप्ता। पति श्री लक्ष्मी प्रसाद गुप्ता। बेटा रोचक गुप्ता और जुड़वा बेटियां रुमिता गुप्ता, रुहिता गुप्ता हैं। आपने हिन्दी,सामाजशास्त्र,दर्शन शास्त्र तीन विषयों में स्नाकोत्तर तथा बी.एड के उपरांत संत कबीर पर शोधकार्य किया। आप 38 वर्षों से तिनसुकिया असम में समाज सेवा में कार्यरत हैं। असमिया भाषा के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ आपने हिन्दी को भी प्रतिष्ठित किया। असमिया संस्कृति और असमिया भाषा से आपका गहरा लगाव है, वैसे तो आप लगभग पांच दर्जन पुस्तकों की प्रणेता हैं...लेकिन असम की संस्कृति पर लिखी दो पुस्तकें उन्हें बहुत प्रिय है। "भारत का गौरव असम" और "असम की गौरवमयी संस्कृति" 15 वर्ष की आयु से लेखन कार्य में लगी हैं। काव्य संग्रह,निबंध संग्रह,कहानी संग्रह, जीवनी संग्रह,बाल साहित्य,यात्रा वृत्तांत,उपन्यास आदि सभी विधाओं में पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मुक्त-हृदय (बाल काव्य संग्रह) नया आकाश (लघुकथा संग्रह) दो पुस्तकों का संपादन भी किया है। लेखन के साथ-साथ नाटक मंचन, आलेखन कला, चित्रकला तथा हस्तशिल्प आदि में भी आपकी रुचि है। 30 वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों व कॉलेज में अध्यापन कार्य किया है। वर्तमान में सलाहकार व काउंसलर है। देश-विदेश की लगभग छह दर्जन से अधिक प्रसिद्ध पत्र- पत्रिकाओं में लेख,कहानियाँ, कविताएं व निबंध आदि प्रकाशित हो चुके हैं। रामपुर उत्तर प्रदेश, डिब्रूगढ़ असम व दिल्ली आकाशवाणी से परिचर्चा कविता पाठ व वार्तालाप नाटक आदि का प्रसारण हो चुका है। दिल्ली दूरदर्शन से साहित्यिक साक्षात्कार।आप 13 देशों की साहित्यिक यात्रा कर चुकी हैं। संत गाडगे बाबा अमरावती विश्व विद्यालय के(प्रथम वर्ष) में अनिवार्य हिन्दी के लिए स्वीकृत पाठ्य पुस्तक "गुंजन" में "प्रयत्न" नामक कविता संकलित की गई है। "शिशु गीत" पुस्तक का तिनसुकिया, असम के विभिन्न विद्यालयों में पठन-पाठन हो रहा है। बाल उपन्यास-"जादूगरनी हलकारा" का असमिया में अनुवाद हो चुका है। "स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्व विद्यालय नांदेड़" में (बी.कॉम, बी.ए,बी.एस.सी (द्वितीय वर्ष) स्वीकृत पुस्तक "गद्य तरंग" में "वीरांगना कनकलता बरुआ" का जीवनी कृत लेख संकलित किया गया है। अपने 2020 में सबसे अधिक 860 सामाजिक कविताएं लिखने का इंडिया बुक रिकॉर्ड बनाया। जिसके लिए प्रकृति फाउंडेशन द्वारा सम्मानित किया गया। 2021 में पॉलीथिन से गमले बनाकर पौधे लगाने का इंडिया बुक रिकॉर्ड बनाया। 2022 सबसे लम्बी कविता "देखो सूरज खड़ा हुआ" इंडिया बुक रिकॉर्ड बनाया। वर्तमान में आप "इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल न्यास" की मार्ग दर्शक, "शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास" की कार्यकर्ता, विवेकानंद केंद्र कन्या कुमारी की कार्यकर्ता, अहिंसा यात्रा की सूत्रधार, हार्ट केयर सोसायटी की सदस्य, नमो मंत्र फाउंडेशन की असम प्रदेश की कनवेनर, रामायण रिसर्च काउंसिल की राष्ट्रीय संयोजक हैं। आपको "मानव संसाधन मंत्रालय" की ओर से "माननीय शिक्षा मंत्री स्मृति इरानी जी" द्वारा शिक्षण के क्षेत्र में प्रोत्साहन प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया जा चुका है। विक्रमशिला विश्व विद्यालय द्वारा "विद्या वाचस्पति" की उपाधि से सम्मानित किया गया। वैश्विक साहित्यिक व सांस्कृतिक महोत्सव इंडोनेशिया व मलेशिया में छत्तीसगढ़ द्वारा- साहित्य वैभव सम्मान, थाईलैंड के क्राबी महोत्सव में साहित्य वैभव सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन असम द्वारा रजत जयंती के अवसर पर साहित्यकार सम्मान,भारत सरकार आकाशवाणी सर्वभाषा कवि सम्मेलन में मध्य प्रदेश द्वारा साहित्यकार सम्मान प्राप्त हुआ तथा वल्ड बुक रिकार्ड में दर्ज किया गया। बाल्यकाल से ही आपकी साहित्य में विशेष रुचि रही है...उसी के परिणाम स्वरूप आज देश विदेश के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें पढ़ा जा सकता है...इसके साथ ही देश विदेश के लगभग पांच दर्जन सम्मानों से सम्मानित हैं। आपके जीवन का उद्देश्य सकारात्मक सोच द्वारा सच्चे हृदय से अपने देश की सेवा करना और कफन के रूप में तिरंगा प्राप्त करना है। वर्तमान पता/ स्थाई पता-------- निशा नंदिनी भारतीय आर.के.विला बाँसबाड़ी, हिजीगुड़ी, गली- ज्ञानपीठ स्कूल तिनसुकिया, असम 786192 [email protected]