लघुकथा- लाज का पर्दा
डगमगाते बच्चों को देख मां का आंचल तार-तार हो जाता है. समझाने की पूरी जिम्मेदारी भी उसीके जिम्मे आती है.
”अविश्वास की नैय्या पर सवारी करोगे, तो डगमगाहट तो होनी ही है न!” मां ने कहा.
”तो फिर तुम ही बताओ हम क्या करें?” बच्चों के संशयों की दरारें तो पटने में ही नहीं आ रही थी.
”तोड़ दो ये संशयों की दीवारें और भ्रांतियां.”
”ये दीवारें ही तो हवाओं के थपेड़ों से हमारी रक्षा करती हैं.”
”लेकिन तुम्हारे हाथ के पत्थर और तलवारें तो दीवारों को खोखला का कर रही हैं, जानते हो इसका नतीजा क्या होगा?”
”जानते हैं, शायद जरूरत से ज्यादा जानते हैं.”
”बस यही जरूरत से ज्यादा जानना ही तो खतरनाक है और शायद शब्द तो उससे भी अधिक हानिकारक! पर ये भूल गए हो कि जब-जब तुममें टक्कर होती है, गाज तो मुझी पर गिरी है, विश्वास भी मेरा ही टूटा है, हार-जीत किसी की भी हो, उंगली तो मेरी परवरिश पर ही उठी है. तुम्हारी इस डगमगाहट ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.” मां की पीड़ा खून के आंसू बनकर बह निकली थी.
”तब हम क्या करें?” बच्चों का सहज प्रश्न था.
”मन को ठेस लगाने वाला यह चित्त-पट का खेल खेलना छोड़ो,
विश्वास से नाता जोड़ो.”
”पर आज तो हमारे अगुआ ही अविश्वास की नौका पर सवार हैं, उनका क्या होगा?”
”उन्हें भी तुम ही सिखाओगे, तुम देश के कर्णधार जो हो!”
”मां, तुमने हमें देश के कर्णधार कहा है, हम तुम्हारे वचन की लाज रखकर अभी से संगठित होकर रहने का पक्का वादा करते हैं, पर इन अगुआओं को आज अविश्वास वाला चित्त-पट का खेल खेलने ही दो, दोनों की असलियत सामने आ जाएगी, अपने आप सुधर जाएंगे.”
”मुझे अपने कर्णधारों पर पूरा भरोसा है.” कहते हुए मां ने मुख से लाज का पर्दा हटा दिया.
सुंदर लघुकथा . हार्दिक बधाई
आदरणीय ओमप्रकाश जी, लघुकथा को आप जैसे वरिष्ठ कथाकार का आशीर्वाद मिला, हमारी लेखनी सार्थक हुई.
जब एक मां या मातृभूमि के बच्चे आपस में लड़ते हैं, तो मां को अपनी ही परवरिश पर लाज आने लगती है और वह शर्मसार हो जाती है. हार-जीत किसी की भी हो, मां के लिए त सब बराबर हो जाते हैं. फिर भी मां उन्हें देश के कर्णधार कहकर उनके मन में इंसानियत का विश्वास जगाती है और बच्चे देश के कर्णधार बनने के लिए आगे चल निकलते हैं.