लघुकथा – लिली
”लिलीSSS, लिलीSSS इधर आओ” बहुत दिनों बाद शालिनी की तेज-तर्रार आवाज में लिली का नाम सुनाई दिया. जिज्ञासावश मैं यह जानने के लिए बालकनी में आ गई, कि लिली का तो देहावसान हो गया था, फिर वह कहां से आ गई! देखा तो शालिनी बड़े प्यार से उसे पुचकार रही थी.
”शालिनी, दूसरी लिली ले आई हो क्या?” उसकी नजर मुझसे मिली तो मैंने पूछ लिया.
”हां जी, सच पूछो तो लिली के बिना रहने की आदत ही नहीं रही. चार दिन की लिली को मैं लाई थी. कितने साल तक तक वह मेरी जान और मैं उसकी जान बने रहे. इतनी दूर मेरी दुकान तक भी आ जाती थी. फिर मैं उसे कार में छोड़ने घर आती थी.”
”यह तो सच कह रही हो, लिली पड़ोस की रौनक थी. बालकनी से ही सबका अभिवादन करती थी.”
मुझे लिली के देहावसान वाला दिन याद आया. शालिनी के पति लिली को दफनाने के लिए ले जा रहे थे और शालिनी की सुबकाई रोके नहीं रुक पा रही थी. जब तक अजय उसे दफनाकर वापिस नहीं आए, वह सुबकती ही रही थी.
फिर लिली उसके सपनों में आने लगी थी, मानो कह रही हो- ”मुझे भुला मत देना, वापिस बुला लेना.”
आज शालिनी फिर दस दिन की एक अल्सेशियन डॉगी को ले आई थी, उसका नाम भी लिली रख दिया था. लिली वापिस आ गई थी.
प्यार हो तो शालिनी और लिली जैसा. वे इक दूजे के लिए बनी थीं. लिली सपनों में भी कहती थी- भुला मत देना जी भुला मत देना, जमाना खराब है दगा मत देना. उसको श्रद्धांजलि देने के लिए दूसरी डॉगी लाई गई. उसका नाम भी लिली रखा गया. सच है लिली वापिस आ गई थी.