व्यथा
अनकही अनरीति तीव्रव्यथा
वेगवती हो बह रही नयन से ।
पलकों ने रोका अलकों ने ढका
झीनी झीनी दिख रही कपोल से।
छलक रही मातृत्व ममता
हो रहा तनय जब दूर दृग से।
समझे न दुख कोई मात का
हृदय विदारक हो रहा शोक से।
मान कर व्यथा को गहना
लगा रही कामिनी हृदय से।
छुपा रही दुख की लड़ियाँ
टूट रहे मोती अपलक नेत्र से।
दर्द नारी के भाग्य बंधा
चोली दामन के साथ से।
व्यथा में नार या नार में व्यथा
समझ न सका कोई युग से।
हँसे मुस्कुराये छिपाये चिंता
निभाती संबंधों को प्यार से।
अद्भुत रचे नार को विधाता
न टूटे न रूठे न छूटे विघ्न से।
— निशा नंदिनी
तिनसुकिया, असम