ग़ज़ल
इफ़रात मुहब्बत कभी’ मारा नहीं’ करते
कौमार्य की’ आतिश को’ बुझया नहीं’ करते |
मन्शा सही’ जिसका हो’, बहाना नहीं’ करते
संकट में’ खरा दोस्त किनारा नहीं’ करते |
नेकी करो’ पर उसका’ कभी जिक्र न करना
सज्जन कभी उपकार जताया नहीं’ करते |
है बात समझने की’ अभी उसने’ बतायी
परदे में’ छिपाकर कहा’, पर्दा नहीं करते |
सज्जन नहीं’ है जीस्त में’ जो दर्द न समझा
कमज़ोर को’ हमदर्द रुलाया नहीं’ करते |
अंधा है’ जो’ विश्वास, उसे’ दूर करो’ अब
है ज्ञान किरण, ज्ञान अँधेरा नहीं’ करते |
जो मूढ़, वही भूल किया करते’ हमेशा
जो विज्ञ हैं’ वह गलती’ दुबारा नहीं’ करते |
गुजरान कमाई के’ लिए प्रिय गए’ परदेश
‘काली’ कभी’ भीमुझको’ सताया नहीं’ करते |
कालीपद ‘प्रसाद’