कभी खोटा कभी लगता खरा है …
कभी खोटा कभी लगता खरा है।
वक्त सब से बड़ा ही मसखरा है।।
फरक क्या है जहाँ में और तुझ में,
तूने भी तो दिया बस मशवरा है।
हो चली हूँ मैं पत्थर इस कदर कि,
दर्द होता तो है लेकिन ज़रा है।
वक्त हर बार ही गुज़रा है तो फिर,
ज़ख्म हर बार क्यों रहता हरा है।
जिरह भी तूने कर ली फैसला भी,
मैं समझी भी नहीं क्या माज़रा है।
गलत तुम भी नहीं मैं भी कहाँ हूँ,
समझ का अपना अपना दायरा है।
कभी तू आ के मिल और खाली कर ले,
ज़हर जितना ‘लहर’ दिल में भरा है।