लघुकथा

झांसा

”धरती मां, आज तुम महाविनाश के कगार पर कैसे पहुंच गई हो? तुम तो सर्व समर्थ थीं. रत्नगर्भा, सुजलां, सुफलां, शस्य श्यामलां… आज इतनी बेबस क्यों?”
”मैं भी तुम जैसी मूक और सहनशील जो हो गई थी बेटी.”
”क्या मतलब?”
”तुम आज भी नहीं समझ पाई हो, कि तुम्हारी बेचारगी की ऐसी हालत किसलिए हो गई है! तुम बच्चों के लिए आदर्श मां बनी रहीं, पति के लिए समर्पित भोग्या और आज्ञाकारिणी, दुनिया के लिए एक मिसाल! नतीजा तुम्हारे तन-मन का महाविनाश ही तो हुआ!”
”तो क्या मैंने गलत किया?”
”तुमने भी अपनी समझ से सही किया मैंने भी, पर मुझे क्या पता था, कि विकास का झांसा देकर मेरे बच्चे ही मेरे अनमोल अंगों जैसे वृक्षों पर कुठाराघात करेंगे, ऐशो-आराम और सौंदर्यीकरण की चाहत में नए आवासीय परिसर, भूमिगत पार्किंग, व्यापारिक केन्द्र खोलने और मार्गों को चौड़ा करने के लिए मेरी जड़ों को ही खोखला कर देंगे, अपनी हर इच्छा को पूरी करने के लिए मेरा ही अवशोषण करेंगे. अब मुझमें न सहने की सामर्थ्य रही है, न खुद को महाविनाश से बचाने की शक्ति. ऊंचे और पुराने वृक्ष काटे जाने से पक्षियों की अनेक प्रजातियों का जीवन भी खतरे में होने के कारण मेरी चहचहाहट भी लुप्त हो गई है. आजादी के दुरुपयोग ने मुझे मूक बना दिया, संतानों को बधिर.”
”तुम ठीक कह रही हो मां, झांसे में आकर मैं भी सबके विकास में प्रयासरत रही और कब अशक्त और निःसहाय हो गई, पता ही नहीं चला!”

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “झांसा

  • लीला तिवानी

    विकास के चलते धरती की हरीतिमा खो गयी, हरे-भरे जंगल कंकरीट के जंगलों में परिवर्तित हो गए. प्रकृति के साथ मिलकर ही मनुष्य का सही विकास हो सकता है, प्रकृति का विनाश करके हम अपना ही विनाश कर रहे हैं. स्त्री की पीड़ा और माँ धरती की पीड़ा लगभग एक जैसी है एवं असंतुलन के कारण विषाद भी. प्रकृति और नारी जन्मदात्री होकर भी केवल भोग्या बन कर रह गई, परिणाम निकला विनाश के रूप में. धरती माँ कब तक यह सहन करती रहती कि जिन वृक्षों से उन की सुन्दरता थी, उनको ही काट कर मैदान बना दिए और इमारतों के जंगल खड़े कर दिए. धरती माँ कब तक यह सभ देखती रहती .उसका सब्र जवाब दे गया और ज्वालामुखी बन कर समुद्र में ही फूट कर अपनी करुणा जाहिर कर देती है. विकास की गति में धरती ऐसे बरबाद होती रही तो वह अपनी रौद्र रूप तो दिखायेगी ही, सबके विकास के झांसे में नारी के विकास का ध्यान न रखने पर उसका भी यही हाल होता है.

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