बसेरा
बसेरा बनाने निकल पड़ा हूँ,पर अंधकार बड़ा गहरा है।
रौशनी भी कहीं नही है और जुगनुओं पर भी पहरा है।।
डगर भी उथल पुथल है और कोहरा भी बड़ा गहरा है।
रुकने का भी वक्त नही है और पैरों को थकन ने घेरा है।।
चलता चल तू बस इसी लग्न से पास ही कहीं सवेरा है।
घबराकर रुकना नही है , माना आज घनघोर अँधेरा है।।
अँधेरो की चादर ओढ़े मंजिल से बस थोड़ी सी अब दूरी है।
प्रयत्न निरंतर जारी ना रखने की नही अब कोई मजबूरी हैं।।
एकाग्र कर मन को बन्द आँखो से मंजिल पर बनाना डेरा है।
काँटे राहों में , परवाह ना कर , बस बनाना एक बसेरा है।।