लघुकथा – विजेता
यह जानते हुए भी, कि यह गंभीर अपराध है, उसने खुद को रेप-पीड़िता बनाने वाले आरोपी को एक कमरे में कैद करके पुलिस को सौंपने का अप्रतिम साहस दिखाया था, ताकि वह फिर किसी नारी की अस्मत पर डाका न डाल पाए. और फिर पुलिस को फोन किया था. थोड़ी देर में ही पुलिस वहां पहुंचने वाली थी.
”तुम विजेता बने रहे, मुझे कोई आपत्ति नहीं. मैंने तो कभी विजेता बनना भी नहीं चाहा, पर मुझे सम्मान से जीने का हक तो मिलना ही चाहिए न! विधाता ने मुझे पहले ही विजेता बनाकर मेरा सृजन किया है और मुझे सृजेता बनने की नेमत दी है. सृजन का यह ताज ही मेरे लिए कैद का पिंजरा बन जाएगा, मालूम न था.” रेप-पीड़िता मानो खुद से बतिया रही थी.
”इस नेमत को पिंजरा बनाने वाले भी तुम हो, तुम हो, तुम जो पुरुष कहलाते हो”. वह अपने मन की पीड़ा किससे कहती!
”तुम रेप के दोषी होते हो, फिर पैरोल के लिए गिड़गिड़ाते हो. जज भी तुम्हारे वादों की दलदली कीच में फंस जाते हैं, पर तुम्हारे इरादों को भांप नहीं पाते हैं, तुम बाहर आते हो, फिर किसी मासूम बाला को अगवा करते हो और उसे रेप-पीड़िता बनाते हो. विजेता कहलाने का यह दंभ तुम्हारे हिस्से ही आया है. धंसे रहो इसी दंभ में.” उसकी पीड़ा अश्रु-सिक्त हो रही थी.
मैं विजेता बन सकूं या नहीं, तुम्हें तो विजेता बन सकने का अवसर अब हम नारियां नहीं ही देंगी.
नारी की व्यथा कथा बन कर रह जाती है. आक्रोश के गर्म तवे पर चन्द आंसू गिरते हैं और सूख जाते हैं. कैंडल मार्च निकलते हैं. मोमबत्तियाँ बुझ जाती हैं. बुझ जाता है आक्रोश का दावानल. शिकारी फिर निकलता है शिकार की तलाश में. बिछाता है जाल और फंस जाता है शिकार. अब उल्टा हुआ. शिकार ने जाल बिछाया और फंस गया शिकारी. अफसोस कि इस बार शिकार के हाथ में त्रिशूल नहीं था. पर शिकारी यह जान ले कि फिर कोई प्रयास किया तो त्रिशूल से भेद दिया जायेगा. विजेता स्त्रीलिंग धारण कर चुका होगा. नारी की भावनाओं को समझने वाली महिला न्यायाधीशों को मगरमच्छी अश्रुओं से पिघलाया जाना असंभव होगा. वक़्त बदल रहा है. शिकारी हो जाएं सावधान नहीं तो देवियाँ दुष्टों के संहार के लिये हो चुकी हैं तैयार.
हमेशा ख़ामोशी अख्तियार करनेवाली नारी का जब आत्मसम्मान जागता है और सम्मान को ठेस लगती है तब वह घायल शेरनी बनकर अंजाम की परवाह किये बिना उसे आहत करनेवाले पर टूट पड़ती है. प्रस्तुत है नारी की इसी सोयी हुई मानसिकता को जगाती हुई लघुकथा