मुक्तक/दोहा

दोहे – हक़ीक़त

अधरों पर तो हास है, पर दिल में तूफान !
सिसक-सिसक दम तोड़ते, बेचारे अरमान !!

प्यार,वफ़ा,अपनत्व अब, बिकते हैं बिन मोल ।
यह क्यों, यह ही दर्द है, नहीं फूटते बोल !!

कैसा आया काल यह, चलन हुआ विपरीत !
बेहयाई के गा रहे, अब तो सारे गीत।।

वादे सब झूठे हुए, सिसक रहे अनुबंध।
नाते-रिश्ते व्यर्थ सब, बिलख रहे संबंध।।

परमारथ सबने तजा, केवल निज का भाव ।
दया, नेह, करुणा नहीं, इनका हुआ अभाव।।

वैसे जीवन आधुनिक, पर पीछे की ओर।
पतन हो रहा रोज़ ही, पर किंचित ना शोर।।

बढ़ता जाता दर्द नित, व्यथा,वेदना,पीर ।
हर नारी है द्रोपदी,खिंचता जिसका चीर।।

आशाएं हैं मोथरी, टूट गया विश्वास।
नयनों में आंसू भरे, तजा अधर ने हास।।

जीवन बोझा बन गया, परे हुआ आनंद।
बुरे मार्ग सारे खुले, अच्छे सारे बंद।।

हर दिन कुम्हलाया लगे, लगती रात उदास।
सभी जी रहे रोज़ ही, भले न आये रास।।

— प्रो.शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]