हाँ! मैं स्वतंत्र हूँ
वह चटकती है कांच सी
खिलती कचनार सी
टूटती है दीवार सी
राह में नारी के
विकार हैं,व्यवधान हैं
दुविधाएँ हैं, द्वंद्व हैं
कितने घेरे कितने कटघरे हैं
कितनी अदालतें
कितने शासन प्रशासन हैं
फिर भी अन्याय से घिरी है
कोमलांगी कठोर कंपित नारी
सदियाँ बीत गई
कोई न जान सका
कितने हैं ईश्वर-अल्लाह
हैं कितने गुरू पादरी पैगंबर
फिर भी है सर्वत्र व्याप्त
कितनी अनबन
है कितना अनर्थ,अधर्म
है यह कैसी विडंबना?
वह विचारती है
विचरती है, डरती है
खुद से लड़ती है
है पूरी आजादी नारी को
फिर भी वह अबोध
न जाने कितने डेरों से
कितने दर, दरवाजों से
कितने खंबों खूंटों से
बंधी है।
— निशा नंदिनी
तिनसुकिया, असम