उम्मीदों के चिराग
उम्मीदों के चिराग ,
आज भी हैं बेहिसाब ।
क्या हुआ जो रात
एक गुजर गई ।
मौसम के मिजाज ,
आज भी है लाजवाब।
क्या हुआ जो रुत
सावन की गुजर गई ।
जीने की चाहतें
आज भी हैं बेहिसाब ।
क्या हुआ जो शोखी
वक़्त की गुजर गई ।
दास्ताने ऐ इश्क़
आज भी हैं मेहरबान
क्या हुआ जो शहनाई
की उम्र गुजर गई ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़