कहाँ से कहाँ जा रहे है….
क्या हो रहा है हमको ???
कहाँ से कहाँ जा रहे है हम ??
शायद आधुनिक हो रहे है।
हम ही खुद को बदल रहे है ,
नाम लेते आधुनिकता का,
आज के युग में खुद ही,
अपनी अलग पहचान चाहते है ।
हम सुबह सवेरे सब को ,
राम राम कहते थे प्रणाम कर,
बच्चों को गुड मॉर्निंग कहना,
सीखा रहे है हम खुद।
दादा दादी बोलते थे हम ,
दुलार उनका पाते थे ,
आज हम खुद बच्चों को ,
ग्रैंडपा, ग्रैंड मां सीखा रहे है ।
मां, पिता जी में थी मिठास,
अपनापन उसमे छलकता था,
आज मोम, डेड, में हम ,
खुद को खुशनसीब समझते है ।
चाचू , ताऊजी कह कह ,
उनके कंधे पर घूमते थे,
अंकल उनको कहला कर ,
दूर रहने को हम ही कहते है,
भाई, बहन की गिनती ,
उंगली पर करते थे ,
आज कजिन है वो ,
गिनती होती है उँगली पर ,
हम घुल मिल खेलते रहते ,
खुशियों के मेले थे ,
आज नहीं है वो विश्वास,
टी,वी ,मोबाइल में है आज खुशी।
हम पढ़े हिंदी, या अंग्रेजी,
आज भी है संस्कृति हममें,
बच्चों को आधुनिकता के नाम पर
कॉवेन्ट में हम पढ़ा रहे है ।
दादा,दादी भी आज बिज़ी ,
माता ,पिता भी बिजी ,
कौन सिखाये संस्कार,
कहाँ से कहाँ जा रहे है ।
शायद आधुनिक हो रहे है ,
हम ही भूल रहे संस्कार ,
बच्चों का क्या दोष ,
आधुनिकता की दौड़ में ,
अंधे सभी हो रहे ।
कहाँ से कहाँ जा रहे हम ,
क्यो सब भूल रहे है ।
शायद आधुनिक हो रहे हम …….
— सारिका औदिच्य