कविता

श्रृंगार…

श्रृंगार! श्रृंगार दर्पण है
व्यक्ति का, उसके व्यक्तित्व का
निखार आता है श्रृंगार से
आकर्षण है श्रृंगार में
वसंत ऋतु का आगमन
प्रकृति रंग-बिरंगे पुष्पों और
भांति-भांति के पर्णों/पत्तों, लताओं से
करते हैं प्रकृति का श्रृंगार
नई नवेली सजी धजी दुल्हन की भांति
हर ओर हरियाली, पक्षियों का कलरव
प्रकृति झूम उठता है, नाच उठता है
बाहरी श्रृंगार के ढेरों सामान
देखते हैं उपयोग करते हैं
प्रसन्न होते हैं, आह्लादित होते हैं
आंतरिक श्रृंगार की वस्तुएं भी
बिखरी हैं हमारे ही इर्द-गिर्द
आंतरिक श्रृंगार से सज्ज
सदियों तक अंकित-टंकित हो जाता है
लोगों के मन मस्तिष्क में
व्यक्ति का प्रधान श्रृंगार है प्रसिद्धि
सद्भावनाओं से अर्जित प्रसिद्धि
अमिट होती है प्रसिद्धि की छाप
युगों-युगों तक छाई रहती है
प्रसिद्धि के श्रृंगार व्यक्ति
श्रम और संघर्ष से प्राप्त करता है।

*बबली सिन्हा

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