“कुहरा पसरा है गुलशन में”
सुख का सूरज नहीं गगन में।
कुहरा पसरा है गुलशन में।।
पाला पड़ता, शीत बरसता,
सर्दी में है बदन ठिठुरता,
तन ढकने को वस्त्र न पूरे,
निर्धनता में जीवन मरता,
पौधे मुरझाये कानन में।
कुहरा पसरा है गुलशन में।।
आपाधापी और वितण्डा,
बिना गैस के चूल्हा ठण्डा,
गइया-जंगल नजर न आते,
पायें कहाँ से लकड़ी कण्डा,
लोकतन्त्र की आजादी तो,
कब से बन्धक राजभवन में।
कुहरा पसरा है गुलशन में।।
जोड़-तोड़ षडयन्त्र यहाँ है?
गांधीजी का मन्त्र कहाँ है?
जिसके लिए शहादत दी थी.
वो जनता का तन्त्र कहाँ है?
कब्ज़ा है अब दानवता का,
मानवता के इस आँगन में।
कुहरा पसरा है गुलशन में।।
दुररानीति ने पाँव जमाया,
विदुरनीति का हुआ सफाया,
आदर्शों को धता बताकर,
देश लूटकर सबने खाया,
बरगद-पीपल सूख गये हैं,
खर-पतवार उगी उपवन में।
कुहरा पसरा है गुलशन में।।
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)