खयालों के हुजूम
रहते हैं खयालों के, हुजूम आस पास
फिर भी ये जिंदगी है, न जाने क्यूं उदास
ख़्वाहिश के परिंदे हैं, उड़ जाएं न कहीं
कुछ बंदिशेंहैं कायम, कुछ फैसले हों खास
रौशन न यूं करो फिर, बुझती हुई शमा को
मंजिल पे पहुंचने की, जगने लगी है आस
उनकी ख़बर नहीं है, अपनी भी है कहां,
फिर भी न जाने कैसे, आ जा २ही है सांस
पतझड़ में दरख्तों पे, खिलते कहां हैं फूल
रहता नहीं हमेशा, ये मौसमें मधुमास
— पुष्पा “स्वाती”